“जागते रहो, जागते रहो”. ये शब्द अचानक मेरे कानो में तब पड़े जब एक भयानक सपने ने मेरी रात की नींद उड़ा दी. इसके बाद तो कितनी बार सोने कि कोशिश की लेकिन पूरी रात नींद नहीं आई. वो सर्दी से ठिठुरती रात में चौकीदार की ये आवाज मेरे कानो में लगातार पड़ रही थी जिससे मुझे एक अलग से साहस का एहसास हो रहा था. लेकिन मुझे सबसे अजीब ये लगा कि आज से पहले तो मैंने कभी इस चौकीदार को पहरा देते नहीं सुना. सुबह होते ही पिता जी से पहला सवाल यही था, कि अचानक हमारे गाँव में ये चौकीदार की जरुरत क्यूँ पड़ गई? पिता जी ने कहा कि बेटा अभी पिछली रात ही बगल के गांव में कई चोरियां हुयीं है, तो सारे गाँव वालों ने मिलकर चौकीदार रख लिया है जो रात के समय गाँव मे पहरा दिया करेगा. लेकिन पिता जी ये चौकीदार कब तक रहेगा? मैंने एक और सवाल कर दिया था. बस जैसे ही चोरियां होनी बंद हो जायेगी और पुलिस चोरों को पकड़ लेती है, चौकीदार हटा लिया जायेगा. पिता जी ने मुझे सिक्यूरिटी प्लान और रिजन दोनों ही समझा दिया था. खैर, मैंने अब आगे कोई सवाल नहीं किया, लेकिन बीती रात के सपने ने और चौकीदार के “जागते रहो” वाले नारे ने मुझे सच में जगा दिया था. अब और कई सारे सवाल मेरे कानो में गूंज रहे थे जिनके उत्तर मै खुद से खोजने कि कोशिश कर रहा था, पहला तो इस चौकीदार की जरुरत कुछ चोरियां होने के बाद ही क्यूँ पड़ी? और ये चौकीदार का काम जब रात को पहरा देना का है जिससे की गांव के लोग चैन की साँस सो सकें तो ये, “जागते रहो जागते रहो” वाला नारा क्यूँ लगाता है, अगर हमें ही जागना है तो फिर इसकी जरुरत ही क्या है? पहले सवाल का जवाब तो बहुत आसान था, क्यूँ कि ये आम बात है कि दवाईंयों कि जरुरत बीमार होने के बाद ही पड़ती है. रही बात दूसरे सवालों की तो, आज मुझे समझ में आता है कि ये सवाल तो हैं ही नहीं, ये तो उत्तर है. क्यूँ कि “जागते रहो” वाला नारा गांव की सोती हुई जनता एक जागरूक अभिव्यक्ति थी जो रात को भी उन चोरों को ये अहसास कराती थी कि इस गांव में चोरी करना आसान नहीं है क्यूँ कि ये लोग सोते हुए भी जाग रहें है. पिछले महीने हुई दिल दहला देने वाली अमानवीय घटना ने पुरे देश को शर्मसार कर दिया. अरे हाँ शर्मशार ही नहीं नहीं जागरूक भी. देश के कोने कोने में, लोंगो ने शाशन प्रशाशन के खिलाफ नारेबाजी की, केंडल मार्च किये, धरने दिए साथ ही, फेसबुक से लेकर मोबाइल पर सैड स्माइलीज भेजे गए. हर एक टीवी चैनल्स, समाचार पत्र, पत्रिकाओं में इस घटना पर थू थू करती एक मुहीम दिखी. और अब उसका परिणाम भी दिख रहा है, देश कि सरकार ने फास्ट ट्रेक कोर्ट में इस केस सुनवाई शुरू कर दी. लेकिन सवाल ये है कि अगर सच में पूरा देश इस मुहीम में शामिल था तो उसके बाद भी ये आये दिन बलात्कार के न्यूज क्यूँ आ रहीं हैं, कौन हैं ये लोग? और फिर क्या हर एक अपराधी को सजा दिलवाने के लिए हर बार इतनी बड़ी मुहीम हो सकती है? नहीं. सच तो यही है कि इस दौड़ती भागती जिंदगी में किसी के पास इतना समय कहाँ है और पिछले अनुभवों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि या तो हम सब कुछ बहुत जल्दी भूल जाते हैं या हमारा जोश खतम हो जाता है. अगर सच में ऐसी घटनाओं को रोकना है तो हमें जंतर मंतर के साथ साथ अपने दिलों में और घरों में मरती हुई नैतिकता को बचाना पड़ेगा. बसुधैव कुटुम्बकम तो हम हमेशा बोलते रहते है लेकिन क्या सच में घर की दहलीज से बाहर निकलने के बाद किसी को अपने परिवार का हिस्सा समझ पातें है, या हमें कोई पराया अपना भाई, अपनी बहन, माँ या बेटी जैसा लगता है. समय है इन सवालों के उत्तर खोजने का और सोते हुए जागने का. “जागते रहो जागते रहो”
(यह आर्टिकल 15/01/2013 को दैनिक समाचार पत्र Inext(Dainik Jagran) में प्रकाशित हो चूका है. कृपया यहाँ क्लीक http://inextepaper.jagran.com/c/735299 )