Wednesday 28 November 2012




आज वो ट्रेनिंग में फिर से लेट आया था, और वही बहाने जो आये दिन हम किया करते हैं, एकबार फिर से मेरे कानो को सुनने को मिल रहे थे, कि सर आज ट्रेफिक सच में बहुत ज्यादा था और तो और तो आज बस भी खराब हो गई थी”. एक बार को तो मेरा मन हुआ कि ये पूछ ही डालूं के ट्रेफिक जाम और बहुत ज्यादा ट्रेफिक जाम में क्या डिफरेंस होता है जबकि इंसान दोनों से ही लेट हो जाता है चाहे कम लेट हो ज्यादा..लेट तो लेट होता है. फिर मुझे याद आया कि कल इसने केवल ट्रेफिक जाम ही बोला था .. फिर आज ज्यादा शब्द लगाना तो बनता है आखिर बातों में विविधता कैसे आती.
लेकिन आज के बहाने में मुझे नया सुनने को मिला, वो ये था कि सर वो क्या है न कि मुझे सुबह सुबह चाय पिने (बेड टी) की आदत है जब तक मुझे चाय नहीं मिलती है मेरी नींद पूरी तरह खुलती ही नहीं है,  और आज मेरे दोस्त को जल्दी ओफिस जाना था तो चाय नहीं मिली और फिर मै समय से जाग नहीं पाया”.  पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसा लगा कि उसके दोनों दिन लेट होने का बस ये ही एक कारण था. एकबार तो मुझे समझ में ही नहीं आया कि अब इसको मै किस तरह का सुझाव दूं,  ट्रेफिक के लिए तो ये बोल सकते थे कि घर से थोडा जल्दी निकला करो, लेकिन अब मुश्किल ये थी कि जिसके दिन की  शुरुवात ही लेट है उसको जल्दी पहुचने की नसीहत मै कैसे दे सकता था.
फिर पता नहीं क्यूँ ना चाहते हुए भी पूछ बैठा, कि तुम देल्ही में कबसे रह रहे हो, सर 3 साल,  उसने जवाब दिया.
और रहने वाले कहाँ के हो, उसने बिहार के एक छोटे से गांव का नाम लिया. मेरा अगला सवाल था कि जब तुम घर पर रहते थे तो क्या चाय रोज बनती थी”.  उसने कहाँ नहीं. मुझे काफी विश्वास था कि उसका यही उत्तर आने वाला है क्यूँ कि मै खुद उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव का रहने वाला हूँ और मुझे पता है कि आज से १० साल पहले मेरे घर पर भी चाय तभी बनती थी जब कोई मेहमान आता था.

अब उसके चेहरे से ये साफ पता चल रहा था कि वो ये जान चूका है कि मै क्या पूछने वाला हूँ,  और मेरा सवाल भी वही था कि  जब तुम गाँव में रहते थे तब तुम्हारी नींद कैसे खुलती थी?
उसके जवाब आने से पहले ही मेरे कुछ और प्रश्न आ गए थे कि क्या होगा जब कभी तुम अकेले रहोगे , या क्या होगा अगर घर में आग लग जाये क्या तब भी तुम्हे चाय कि जरुरत पड़ेगी
उसके पास कोई जवाब नहीं था, लेकिन शायद वो समझ चूका था कि ये सुबह सुबह चाय पीना और फिर जागना जो कुछ दिनों पहले तक महज आदत हुआ करती थी अब ये उसकी कमजोरी बन चुकी है.  

ये कहानी हमारे हर किसी के लाइफ में कही ना नहीं दिख जाती है,  हम जाने अनजाने में ना जाने  कितने एसी आदतों को इतना स्ट्रोंग बना देते हैं कि वो आदते ना रह कर हमारी मजबूरियां बन जाती है और हमारे आगे बढ़ने के रास्ते में दिवार बनकर खड़ी हो जाती है. उसे आज भी याद है कि जब उसने देल्ही आने के लिए पहली बार ट्रेन के पायदान पर पैर रखा था तो ना जाने कितने सपनो का भार उसके कंधो पर था और वो पायदान सिर्फ पायदान ना होकर बल्कि उसे एक स्टेपिंग स्टोन की तरह लगा, लेकिन आज महज चाय पीने के एक आदत उसके लिए एक स्टोपिंग स्टोन कि तरह हो गई थी जो उसको दो दिनों से ट्रेनिंग में लेट होने पर मजबूर कर रही थी.

आज भागती जिंदगी में ना जाने कितने सपने पाल कर हम हर रोज उसे पूरा करने के लिए निकलते है, और फिर कुछ ऐसी ही छोटी छोटी आदते हमारे रास्ते के बीच में दिवार बन जाती है, हालाँकि  इनको दिवार बनाने में में हमारा ही हाथ होता है, क्यूँ कि हम अपने आपको कुछ इस तरह से भरोसा दिला देते हैं कि अब ये आदत तो मुझसे छूट ही नहीं सकती या इसको मै छह कर भी बदल नहीं सकता. ये विश्वास दोनों तरफ सामान रूप काम करता है अब डिपेंड ये करता है कि किस सेन्स में पोसिटिव या नेगटिव.. एक बड़ी पुरानी कहावत है मानो तो देव नहीं तो पत्थर”. और हम सभी इस बात से पूरी तरह ताल्लुक रखते हैं.

आइये अपनी हर आदतों को अपने सक्सेस के रास्ते के लिए एक स्टेपिंग स्टोन बनाते हैं न कि स्टोपिंग स्टोन.
(यह आर्टिकल 28/11/2012 को दैनिक समाचार पत्र Inext(Dainik Jagran) में प्रकाशित हो चूका है. कृपया यहाँ क्लीक http://inextepaper.jagran.com/71183/Inext-Dehradun/28.11.12#page/11/1 करें )



उस समय हर रोज मेरे दिन की शुरुवात पुजारी जी की घंटी की आवाज से होती थी, और फिर कुछ देर बात लाउडस्पीकर पर बजने वाली आरती और भजन से तो जैसे सारा वातावरण भक्यिमय हो जाता था. ये मधुर आवाजे मेरे ही नहीं ना जाने कितने लोंगो के लिए अलार्म घडी की तरह थी. इन आवाजों में खासियत ये थी कि चाहे आप भजन कीर्तन से जागें या मस्जिद में बजने वाले अजान से आपका मन मस्तिस्क अपने आप अपने ईष्ट को याद करके झुक जाता था. घर के रास्ते में पड़ने वाला पुराना मंदिर अब कई बड़ी बिल्डिंग्स के बनने से ढक गया लेकिन उसके शीरे पर लगा हुआ लंबा त्रिशूल और लंबी सी पाईप में लगे हुए झंडे को देखकर मंदिर में भगवान शिव की मूर्तियों का एहसास बखूबी हो जाता है. हमारे मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे के ऊपर लगे हुए झंडे, गुम्बदों और लाउडस्पीकर पर बजते भजन कीर्तन और अजान को सुनकर मुझे ये तो समझ में नहीं आता की इनके पीछे कितने राज लेकिन इतना जरुर समझ आता है की ये कुछ और नहीं बल्कि मानवता को प्रचार और प्रसारित करने के लिए मार्केटिंग का एक तरीका है. आज कुछ ऐसा ही मार्केटिंग का एहसास मुझे तब हुआ जब मैंने आमिर खान के शो सत्यमेव जयते के लिए होते देखा. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस शो की जबरदस्त मार्केटिंग ने इसके द्वारा उठाये गए सामाजिक मुद्दों को करोडो लोंगो तक पहुंचा दिया.

इस शो को देखने के बाद मुझे आज के दर्शको के बदलते हुए स्वाद का एहसास हुआ. क्यूँ कि आज के पहले भी शिक्षा, दहेज, भ्रस्टाचार और महिला उत्पीडन जैसे मुद्दों पर ना जाने कितनी मुवियाँ और धारावाहिक बन चुके हैं लेकिन कभी भी उनका इतने व्यापक रूप से परिणाम देखने को नहीं मिला. अब शायद हमें अपने अपने समाज की कुरीतियों को समझने और इनसे लड़ने के लिए बड़े ब्रांड और उससे भी ज्यादा बड़ी मार्केटिंग की जरुरत पड़ने लगी है. और अगर ये सही है तो इस तरह के शो की संख्या और भी ज्यादा होनी चाहिए.

लेकिन मुझे दुख तो तब हुआ जब हमारे समाज के कुछ बुद्धिजीवियों ने इसकी भी आलोचना कर डाली. अभी कुछ दिनों पहले ही मेरे फेसबुक अकाउंट पर मैंने एक टैग देखा- इनक्रेडिबल इंडिया- हमारे देश में Rs 250  ना होने से एक बच्चा मर जाता है और यही बात बताने के लिए आमिर खान ढाई लाख लेते हैं. वैसे आलोचना करना तो हम अपना जन्मशिद्ध अधिकार समझते है और हम इस कला में इतने पारंगत है कि विषय चाहे कुछ भी हो हम कुछ ना कुछ ढूँढ ही लेते हैं, जैसे अभी पिछले ही हफ्ते मै एक दोस्त के साथ उसको शू खरीदवाने के लिए एक ब्रांडेड शोरूम में गया, जूता पसंद भी आ गया लेकिन कीमत पॉकेट से बड़ी थी तभी मेरे दोस्त को याद आया कि बरसात के मौसम में तो लेदर के जूते खरीदना अच्छा नहीं  होता हैं चल बाद में खरीद लेंगे.
पता नहीं ये हमारी ये कला तब कहाँ चली जाती जब हमारे तथाकथित अरबपति बाबाओं के दर्शन के लिए हमारी जनता अपनी समस्याओ के लेकर घंटो खड़ी रहती है और हजारों रूपये खर्च कर देती है ? इस नए टीवी शो ने ये प्रूव कर दिया है की हमारी जनता को जागरूक करने का तरीका बदलना पड़ेगा और हर सामाजिक कार्य जो कुरीतियों से लड़ने और मानवता को बचाने के लिए किये जा रहें है, उन्हें अब ब्रांड और मार्केटिंग के जरुरत पड़ने लगी है चाहे वो दैनिक अखबार, इन्टरनेट या किसी टीवी शो के माध्यम से हो. आखिर हमारे देश को पोलियो मुक्त बनाने में योगदान करने वाली लाइन दो बूँद जिंदगी केऔर अमिताभ बच्चन के ब्रांड इमेज को कैसे भूल सकते हैं. शायद शदी के इस महानायक कि वजह से ही हम देश को पोलियो मुक्त बनाने कि लड़ाई में सक्षम हो पायें है और ये अमिताभ के ब्रांड इमेज का ही जलवा है कि आज गांव गांव तक हर कोई पोलियो के खिलाफ लड़ाई में शामिल है.
(यह आर्टिकल 11/09/2012 को दैनिक समाचार पत्र Inext(Dainik Jagran) में प्रकाशित हो चूका है. कृपया यहाँ क्लीक http://inextepaper.jagran.com/56247/INEXT-LUCKNOW/11.09.12#page/11/2 करें



1st ओक्टुबर, आफिस में सारे लोग खुश थे ऐसा नहीं था कि दीवाली पर आने वाले बोनस की खबर अभी लग गयी हो बल्कि इसलिए कि अगले दिन 2 ओक्टुबर था. सभी अपने अपने छुट्टियों की प्लानिंग कर रहे थे, मूवी, ओउटिंग, पार्टी, रिलेटीव विजिट इत्यादि. लेकिन इन सबके बीच भी कुछ इंसान खुश नहीं थे. मिश्रा जी यार कितना अच्छा होता ना अगर गाँधी जी एक ओक्टुबर को पैदा होते तो, तीन दिन की छुट्टी एक साथ मिल जाती. शनिवार और रविवार  की तो पहले से ही है. वर्मा जी की तो कुछ अलग ही समस्या थी -यार साल में एकबार तो 2 ओक्टुबर आता है वो भी मंगलवार को पड़ रहा है मै नानवेज भी नहीं खा सकता. अब मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था कि वर्मा जी को किसके जन्मदिन से तकलीफ थी गाँधी जी के या हनुमान जी के .

फिर क्या घढ़ी में 6.30 बजते मैंने रवि से बोला, भाई आज मै अपने गाड़ी लेकर नहीं आया हूँ मुझे हाई वे तक ड्रॉप कर देना, सोरी यार आज मै उधर से नहीं जाऊंगा, कल ड्राई डे है ना तो आज ही फूल स्टोक लेना पड़ेगा नहीं तो कल कहीं मिलेगा नहीं रवि ने समस्या जताई. अब तो मुझसे भी रहा नही गया सोचा कितना अजीब है ना, कि वैसे तो हर जन्म दिन पर लोग पार्टियां करते हैं पर इतने बड़े जन्मदिन को सरकार ने ड्राई डे घोषित कर रखा है.. और आज इसी वजह से मुझे आज पैदल जाना पड़ रहा है.

खैर, जैसे तैसे घर पहुंचा फिर खाया पिया और सो गया. ये भी एक जन्मदिन था, ना रात के 12 बजने का इंतज़ार था ना ही बर्थडे वीश करने की टेंशन.

2 ओक्टुबर की सुबह थोड़ी देर से हुई ऑफिस जो नहीं जाना था और यही वजह थी कि मन अपने आप हैप्पी बर्थडे गाँधी जी की जगह पर थैंक्यू गाँधी जी बोल रहा था, इतना ही नहीं एक खास बात तो ये भी थी कि उस दिन के पेट्रोल खर्चे में जाने वाले गाँधी छाप नोट की बचत भी हो रही थी. भला इससे बढकर गान्धित्व को बचाने की बात और क्या हो सकती थी. फिर क्या पुरे दिन टीवी में गाँधी जी के आदर्शों के ऊपर कार्यक्रमों की झांकियां देखता रहा फिर शाम को सोचा की कही घूम आते हैं.

और बिना हेलमेट के ही बाइक पर निकल लिया सोचा आज पुलिस वाले तो मिलेंगे नहीं 2 ओक्टुबर जो है आज तो वहाँ भी छुट्टी वाला माहौल होगा. घर से कुछ दूर निकला ही था कि पुलिस का चलता फिरता चेक पोस्ट देखकर मेरे होश उड़ गए, तीन पुलिस वालों ने उम्मीद भरी निगाहों से मुझे रोक लिया. मुझे फिर से याद आया कि आज तो घबराने की बात नहीं है आज इनको पक्का सत्य, अहिंसा और भ्रष्टाचार वाला पाठ याद होगा आखिर 2 ओक्टुबर जो है. लेकिन मुझे भी अपनी गलती का एहसास हुआ क्यूँ कि मैंने भी तो ट्रेफिक नियम तोडा था ना हेलमेट ना ही बाइक के पेपर्स, अरे ये कोई गाँधी जी के नमक कानून तोड़ने जैसे थोड़ी था जो सबका सपोर्ट मिलता. तब तक पुलिस वालों के दो विकल्प आ चुके थे या तो 1000 रुपये का चालान भरो या 500 रूपये. मुझे दोनों नोटों पर छपे गाँधी जी के साक्षात् दर्शन होने लगे और साथ ही ये भी एहसास हुआ कि इस पर छपे गाँधी जी का वजन कितना भारी है. फिर क्या था आखिर बार्गेनिंग भी तो कोई चीज होती है बात 300 रुपये पर आ बनी. मेरे पास 500 का एक ही नोट था सो पकड़ा दिया. पुलिस वाले ने नोट को लोंगो से छुपाते हुए रौशनी की तरफ करके उसमे नकली और असली गाँधी जी की पहचान करने लगा, आखिर 200 लौटाने जो थे वरना नकली गाँधी जी की वजह से उसका 2 ओक्टुबर खराब हो जाता. मै अभी तक उम्मीद लगाये बैठा था कि शायद अब इसको गाँधी जी का पाठ याद आ जायेगा कि रिश्वत नहीं लेना चाहिए. मैंने जाते जाते तीनों पुलिस वालों पर एक नज़र डाली तीनों गाँधी जी के बंदरों की तरह लग रहे थे लेकिन इनकी बात कुछ और थी एक गलत कर रहा था, दूसरा गलत देख रहा था और तीसरा गलत सुन रहा था. घर लौटते समय गाँधी जी के हैपी बर्थडे में से मेरे लिए हैपी शब्द गायब हो गया था लेकिन कई उन्सुल्झे सवाल अभी तक मुझे परेशांन कर रहे थे. कि गलत कौन था मै या पुलिस वाले, क्या गाँधी जी के जन्मदिन पर भी मैंने सच में उन्हें कही याद किया, और पोकेट में तो कितने सारे गाँधी जी हैं लेकिन कही दिल में भी हैं क्या ? 

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