Thursday 3 May 2018



अब आंधियां बहुत डराती हैं, बिलकुल अजीज नहीं लगती, धुल समेटे हुए आखों में चुभती हैं अब, पहले नहीं होता था ऐसा, बचपन में गाँव वाली आंधियां बिलकुल ऐसी नहीं होती थीं, गाँव में छोपड़ीयां होती थी, मिटटी के मकान थे, बांस पर टिकाये हुए छप्पर होते थे, कुछ भी उतना मजबूत नहीं था जितना आज शहर के मकान हैं, लेकिन इतना डर नहीं लगता था | हम आंधियां आते ही घर से बाहर निकल जाते थे, बगीचे में आंधी से दो दो हाथ करने के लिए. आम के सीजन में तो जैसे गुनाह होता था घर में रहना, जहाँ हमारा बचपन आंधी के आने से खुश होता था  कि कच्चे पके आम पेड़ों से गिरेंगे वहीँ हमारे बड़े बूढ़े दुखी भी होते थे फसलों की बर्बादी के लिए, आधियां घर आंगन सब एक कर देती थीं , घर में आम, जामुन, बेर, अमरुद की पत्तियां और मिट्टी, सब घर में आ जाती थी, सामने के पेड़ से आम के कुछ कच्चे पके फल भी आ जाते थे साथ में, हवा तेज होती थी, लेकिन बारिश के साथ वो मिट्टी के गिले होते ही उसकी सोंधी खुशबू अब नसीब भी नहीं होती |
खेतों में गेंहू की खड़ी फसलें जमीन पर आ जाती थीं, और जो फसलें कटी होती थीं, वो एक खेतों से दुसरे खेतों में चली जाती थी, लेकिन आज तक कभी एक दुसरे में मिली हुई फसलों के वजह किसी में फासले नहीं हुए, किसी ने किसी को इस बात के लिए नहीं सुनाया या लड़ाई की कि  तुम्हारे खेत में मेरी फसल उड़कर चली गई या ये मेरी है या तेरी है  |

आधियों में बांस के पेड़ों से चुर्र चुर्र की आवाजें डराती थीं, जामुन के पेड़ की टहनियां के लिए तैयार होती थीं, लेकिन आम के पेड़ों के नीचे गाँव का हर बचपन आधियों को जीभर के जीता था, हमारे छोटे छोटे पॉकेट आम और दुसरे फलों से भर जाते थे, और उसके बाद आता था हमारा गमझा जिसके एक सिरे को बांधकर हम अपना स्टोर रूम बनाते थे | बिलकुल डर नहीं था, आधियों ने कभी नहीं डराया इतना |
कितना गजब का माहौल होता था आंधी के आने से पहले से लेकर आधी के ख़तम होने तक हम बगीचा नहीं छोड़ते थे कभी, हवा के शांत होते ही जैसे हमारे अन्दर कोई जासूस घुस जाता था और बगीचे के हर कोने की तलाशी शुरू हो जाती थी, हर पत्ते को पलट के देखा जाता था कोई आम तो नहीं छुपा बैठा है वहां, ऐसा कभी नहीं हुआ कि बिना तस्सली के हमने कभी मैदान छोड़ा हो | हर आंधी के अगले दिन हर इम्पोर्टेंट काम के साथ एक काम टीवी एंटीना को फिर से सही दिशा में लगाना भी सबसे अहम् काम होता था
आंधी के बाद हर घर में कच्चे आमों की अमिया से लेकर खट्टी मीठी चटनी बननी शुरू हो जाती थी या आम ज्यादा हुए तो दरवाजे पर कटे हुए कच्चे आम आचार बनने के लिए तैयार मिलते थे, उन दिनों  गाँव में वेस्ट मैनेजमेंट बिना किसी मैनेजमेंट डिग्री के बड़ी आसानी से कर लिया जाता था |
शहर की आंधियां हमें कभी बाहर नहीं रहने देती, हवा चलती है कि हम घर में दरवाजे बंद कर लेते हैं, क्युकी यहाँ आधियों में आम के पत्ते नहीं उड़ते, यहाँ उड़ते हैं, प्लास्टिक के थैले, पेपर प्लेट्स, काली पोलीथिन में हर घर से निकला हुआ कूड़ा कचरा और सड़क पर वो धुल जो गाड़ियों के टायरों में चिपकने से  से छूट जाती हैं |


इन आधियों में माँ बाप बच्चों को घर में जैसे कैद कर देते है और फिर टीवी ऑन कर लेते हैं ये जानने के लिए कि आधी को किस किस चैनल पर सनसनी बोलकर दिखाया जा रहा है, लेकिन थोड़ी ही देर में टीवी पर मौसम ख़राब होने का मैसेज आ जाता है और हम यूँ चिढ़ते हैं जैसे हमे ये पता ही नहीं था, कि बाहर हवा बहुत तेज है |

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