Monday 24 December 2018





मै उस दिन बैंक के अन्दर गया ही था की मेरे बॉस ने फ़ोन पर कहा कि “तुम रहने दो, लौट आओ और अपनी फाइल जमा कर दो दो, काम करने की जरुरत नहीं है” | मै लौट आया, लाजपत नगर अपने ऑफिस के पास ही एक पार्क में आकर बैठ गया, सोच लिया था की अब काम नहीं करना यहाँ, वैसे भी बॉस ने बोल ही दिया है की अब तुमसे काम नहीं करवाना, तो मेरे पास पूरा दिन था, क्यूंकि जब ऑफिस जाकर फाइल सबमिट ही करनी थी तो ऐसी भी क्या जल्दी थी, ये काम तो दिन में कभी भी हो सकता था, सर्दियों का मौसम था, दिल्ली की सर्दी अपने चरम पर थी, उस पार्क में बैठकर मै स्ट्रेस और हल्का दोनों फील कर रहा था, स्ट्रेस था की अब कोई दूसरी नौकरी खोजनी पड़ेगी, और हल्का इसीलिए फील कर था की जिस काम में आपको आपके काम की इज्जत नहीं मिल रही हो वहां से हट जाना ही बेहतर होता है और उस दिन मै ठान चूका था कि आज इस कंपनी में मेरा आखिरी दिन है, मैंने पार्क में बैठकर अपने लगभग सारे दोस्तों को फोन कर दिया की आज नौकरी चली जायेगी, कोई नौकरी हो तो बताओ मेरे लिए |
मेरे करियर की पहली जॉब मार्किट प्रूव, जिसमे मै एक फ्रीलांसर  के रूप में काम करता था, मेरा काम था की स्टैण्डर्ड चार्टर्ड बैंक्स के ब्रान्चेस के सामने खड़े होकर वहां आने जाने वाले हर कस्टमर का फीडबैक लेना, उन दिनों लगभग 18 ब्रान्चेस थी बैंक की और मै उस प्रोजेक्ट में अकेला एम्प्लोयी था, उसदिन मुझे नॉएडा सेक्टर 18 की ब्रांच में जाना था, मै उत्तम नगर रहता था , वहां से कोई सीधी बस नहीं थी, पहले मुझे धौलाकुवां के लिए बस लेनी थी और उसके बाद वहां से नॉएडा की बस मिलती |
मै कई दिनों से वायरल में था, बुखार आता जाता रहता था दवाई खाने के बाद, सुबह बिलकुल मन नहीं था की मै जाऊं आज काम पर, लेकिन दवाई के असर से बुखार नहीं था उस वक्त तो, मै निकल पड़ा, मुझे साढ़े नौ बजे पहुचना था, मै सही वक्त पर निकल गया था लेकिन समय पर बस ना मिलने से करीब एक घंटे लेट हो गया.मै जैसे ही ब्रांच पहुचा था कि, बॉस का काल आया की कहाँ हो?
अभी ब्रांच पहुंचा हूँ सर – मैंने जवाब दिया
इतना लेट क्यूँ हुआ? मैंने अपनी बात बताई की तबियत ठीक नहीं है सर, और दूसरा बस नहीं मिली समय से तो लेट हो गया |
एक काम करो तुम ऑफिस आ जाओ, तुमसे काम नहीं हो सकता है अब, अपनी फाइल सबमिट करो और घर जाओ, बॉस ने गुस्से में बोला |
मैंने भी लगभग गुस्से में कहा ठीक है सर आ रहा हूँ, क्युकी मुझे लग रहा था की मैंने जानबूझकर लेट तो किया नहीं है |
लाजपत नगर के उस पार्क में घंटों बैठने के बाद, मै ऑफिस पहुचा, सामने मेरे बॉस थे, मैंने कहा सर फाइल किसे देनी है |
तुमसे अनिल सर मिलना चाहते हैं, अन्दर जाओ मिल लो |
अनिल झा सर उन दिनों ब्रांच हेड थे, मै उनसे इंटरव्यू के वक्त ही एक बार मिला था, दुबारा कभी कोई मुलाकात नहीं हुई थी उनसे जनरल गुड मोर्निंग के अलावा |
मै थोडा सा डर गया कि नौकरी तो जाएगी ही लग रहा है क्लास भी लगेगी अब |
आइये प्रवीण, बैठिये – अनिल सर के केबिन में जाते उन्होंने मुस्कराते हुए कहा
क्या हुआ आज, क्यूँ काम नहीं कर पा रहे हैं?
मैंने अपनी सारी बात बता दी कि सर मै कई कई दिन से वायरल में हूँ और आज निकला तो समय से ही था लेकिन नॉएडा बहुत दूर है मेरे घर से, और समय से बस नहीं मिल और तो लेट हो गया, तो सर ने बोला की फाइल सबमिट कर दो |
अनिल सर पूरी बात बड़ी इत्मिनान से सुनते रहे, उन्होंने ने कुछ नहीं बोला |
पर्स से 500 रुपये का नोट निकाला और मुझे देते हुए कहा, अगर आराम करना है तो कर लो एक दो दिन, छुट्टी ले लो, और अब आगे से आस पास के ब्रांच में ही जाना कुछ दिन जब तक आप ठीक न हो जाओ, और ये पैसे रख लो और बस ना लेकर ऑटो से चले जाना, और पैसे कम पड़ जाए तो बता देना जो भी खर्च होगा, मिल जाएगा आपको |
मेरे लिए ये बिलकुल अचंभित करने वाला वाकया था, मै जहाँ पहले अन्दर से डरा हुआ था की आज तो नौकरी जायेगी और  क्लास भी लगेगी, लेकिन इसके उलट हो रहा था सब कुछ |
मै बहुत कुछ नहीं बोल पाया उस वक्त, पैसे लिए और थैंक यू बोलते हुए बाहर आ गया, 2006 में वो 500 का नोट बेहद कीमती था मेरे लिए, प्राइवेट ऑटो में बैठना लक्ज़री थी मेरे लिए, लेकिन उससे भी अहम् वो बात थी, जो अनिल सर का व्यवहार था उस दिन |
मेरे कॉर्पोरेट की दुनिया में लीडरशिप की वो पहली क्लास थी मेरी, जिसमे एम्पथी थी, लिसनिंग स्किल्स थी, स्पेस देना था, एम्प्लोयी की फीलिंग को समझना था, और उससे भी बड़ी बात थी उस डिस्कशन में उनकी सजहता जो जिसने मुझे बहुत सहज कर दिया था |
अब ये बात बताने वाली नहीं है की मै अगले दिन ज्यादा खुश और मोटिवेटेड था काम पर जाने के लिए और मुझे याद है कि उस प्रोजेक्ट में सबसे लम्बे टाइम तक काम करने वाला पहला फ्रीलांसर था |
आज करीब 13 साल बाद जब मै एक फ्रीलांसर से अपनी कंपनी Skilling You को लीड कर रहा हूँ, और अनिल सर Aeon Market Research कंपनी के फाउंडर एंड डायरेक्टर हैं, जिसमें 18 शहरों में 1000 से ज्यादा एम्प्लोयी हैं, वो बातें जो उनसे सीखी थी आज भी लाज़मी लगती हैं जितना उस दिन थी     
शुक्रिया Mr Anil Jha , आपके सिखाई हुई बातें आज भी मुझे बहुत ताकत देती हैं और एक बेहतर लीडर बनने से पहले एक बेहतर इन्सान बनना सिखाती हैं |
Praveen Kumar Rajbhar

Wednesday 5 September 2018



इस साल का "हैप्पी टीचर्स डे" सीधे AIIMs से!
आज उसने पहली बार सफेद वाला कोट पहना है, जो मरीजों के नज़रों में उसके डॉ का बनने का पहला सर्टिफिकेट है । वो बहुत खुश है, बिल्कुल वैसे ही जैसे वो सामने पड़ा हुआ मरीज है । क्योंकि आज वो अरसे बाद खड़ा हो पाया है, आज ही उसके प्लास्टिक वाले पैर मिलें हैं उसको, अपने एक्सीडेंट के बाद जब उसने अपने पैर खो दिए थे, तबसे घर के टूटे फूटे फर्श पर घिसटने से लेकर हॉस्पिटल के स्ट्रेचर, व्हील चेयर, लिफ्ट तक बहुत बड़ा सफर तय किया है उसने ।
वो मरीजों वे कम बात करता है, हरे कलर का ऑपेरशन वाला ड्रेस पहन के शायद उसने अपने अंदर एक बहुत पड़ा पतझड़ भी छुपा रखा है, नाक के ऊपर उसने हवा को फिल्टर करने वाला मास्क पहन रखा है, शायद उससे अब कई बार इमोशन्स भी छनकर बाहर ही रह जाते हैं, उसका उस बूढ़े अंकल से तू तड़ाक करके बात करना और डांटना बताता है कि वो पुराना डॉ है यहां का ।
उसने अपने बगल में अपने जैसे ही एक हर रंग वाले को अभी जोर से घूरा है, शायद कहना चाह रहा हो कि तेरे होने के बाद भी मैं इससे बात क्यूँ करनी पड़ रही है, वो डॉ भाग कर आता है बूढ़े को दादा जी बोल रहा है, समझाने की कोशिश कर रहा है उनकी भाषा में, शायद उसे अपने दादाजी याद आ गए हों, जिन्होंने अपने जीते जी अपनी वसीयत अपने बेटे के नाम तो नही की लेकिन नाती के मेडिकल की पढ़ाई के लिए अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा बिना सोचे बेच दिया था। इसका बात करना बताता है कि ये नया डॉ है ।
वार्ड के बाहर बैठा सिक्युरिटी गार्ड हर पर्चे को बड़ी गौर से देखता है जैसे डॉ की हर लिखावट को समझता है खुद, वो शायद पुराना है यहां, समझ जाता है की मरीज को किस रूम में भेजना है, लेकिन पर्चा जरूर देखता है ।
दूसरा गार्ड अब पर्चा नही देखता है, लेकिन वो डांटना सिख गया है, अब वो सिटी बजाके इशारे से गैलरी खाली कराता है, वो बोलता है यहां नही बैठना चाहे जहाँ बैठ जाओ, मरीज और उनके साथ वाले उठ के बैठ जाते हैं लाचारी के साथ, फिर लेट जाते हैं इस डर से की ये जगह छोड़ी तो ये भी हाथ से निकल जायेगी, लेकिन तभी फिर से सिटी बज जाती है।
वो मरीज अपनी जिंदगी को कोस रहा है, वो थक गया है अब लाइन में खड़े होकर इलाज करवाने से, भटकने से, पैसे नहीं हैं तो प्राइवेट हॉस्पिटल भी नहीं जा सकता, लेकिन वो भी क्या दिन थे जब चुनाव के वक्त महीनों पहले ही हाथ मे झंडे के साथ घर घर जाकर चुनावी तैयारी कराता था, सरकार चुनवा ली उसने, लेकिन उसके सरकार ने अपने वादे नही चुने।
वो टेबल पर बैठी आंटी भी थक गई हैं, उम्र के इस पड़ाव में भी लोग उन्हें सिस्टर ही कहते हैं, अब वो कम मुस्कराती हैं, मरीज उनसे डरते हैं ,क्योंकि वो बात बात पर डांट देती हैं, आजकल वो बस छठें पे-कमीशन वाले चर्चे पर ही खुश होती हैं ।
उस नई सिस्टर के आते ही मरीज खुश हो जाते हैं, उसकी उम्र बताती है कि वो पूरे वार्ड में भर्ती मरीजों के लिए किसी की सिस्टर, तो किसी के बेटी के जैसी है, मरीज नही जानते कि वो क्या इंजेक्शन लगाती है लेकिन जब वो लगाती है तो दर्द बहुत कम होता है, शायद वो हमेशा मुस्कराती है उसी का असर है । सच में कुछ ऐसे डॉ भी मिलेंगे आपको जो सच में भगवान टाइप फीलिंग देते हैं।
वो शख्स पहले तो ये समझ रहा था कि एक दो दिन में सब ठीक हो जाएगा, पिछले कई महीनों से अब वो हर हफ्ते चक्कर लगाता है, पॉकेट में रखी एक स्लिप अब बड़ी फाइल में तब्दील हो चुकी है, अभी पिछले हफ्ते उसने 50 रुपये का एक फोल्डर खरीदा इन्ही हॉस्पिटल के पेपरों को सुरक्षित रखने के लिए जिन पेपरों के पीछे उसने अब तक की अपनी सारी कमाई लगा दी । उसके पर्स में अब एटीएम की वो ही स्लिप बची है, जिसमें बचे पैसे को एटीएम ने इनसफिसिएंट मनी बोलकर देने से मना कर दिया है, ये मरीज के साथ वाले होते हैं जिन्हें डॉ की हिदायत होती है कि आपको मरीज के सामने हमेशा मुस्कराते रहना है ।
ये दुनिया महज मुसीबतों और परीस्थितियों से सीखती है । लोग इसी के हिसाब से आपके साथ जुड़ते हैं, और जुड़े रहते हैं ।
मुसीबतें या बीमारियां लंबी हो जाएं तो बहुत से रिस्ते देर तक नही टिकते, वहीं अगर परिस्थितियां बेहतर हो तो रिस्ते अपने आप एडजस्टिंग मोड में आ जाते हैं।
इस दुनिया में लोग अच्छे, बहुत अच्छे, कम अच्छे और ना-अच्छे, इन्ही सबके आधार पर होते हैं चाहे वो हॉस्पिटल हो या इसके बाहर की जिंदगी ।
तो इन्ही हालातों को
"हैप्पी टीचर्स डे"।
मुस्कराइए की आप हॉस्पिटल में हैं ।

Saturday 16 June 2018



माँ बाप कभी अकेले बीमार नहीं होते,  बीमार हो जाती है हमारी ख्वाहिशें जो कहीं जिन्दा होती हैं, इस भरोसे की शायद कभी बचपन लौट आये फिर से, इनका बीमार होना अचानक ही बड़ा कर देता है उस बच्चे को जो अभी तक ये मानने के लिए तैयार नहीं था कि वो बड़ा हो गया है, बीमार तो वो किचेन भी हो जाता है, जिसका हर कोना कोना गवाह होता है, जो पहले कहीं ज्यादा चमकता था, जब उस पर माँ हाथ लगता था, वो तवे की चमक भी फीकी पड़ जाती है जो पहले ज्यादा चमकती थी, वो सारे बर्तन रंग बदलना शुरू कर देते हैं जैसे सभी बीमार हो गए हों और पीले पड़ने लग जाए जैसे जैसे इन्सान पीला पड़ना शुरू हो जाता है उम्र और बीमारी के चपेट में |

बीमार हो जाते हैं वो सारे खेत खलिहान, बरामदा, दरवाजे की चारपाई, गाय, भैस, और वो गाँव का आवारा कहा जाने वाला कुत्ता भी, जिसको भरोसा था कि हर शाम को खाने के बाद उसे भी एक रोटी मिलती ही है यहाँ, मुझे लगता था कि  हमारे किचेन में खाना तैयार हो गया है इसकी खबर बस हमें ही लगती थी, लेकिन वो कुत्ता भी था जिसको माँ के किचेन के खुशबू रोज खीच लाती थी | हाँ सब के सब बीमार हो जाते है एक साथ |

बीमार हो जाती हैं तहसील में पड़ी फाइलें, जो कभी पापा के हाथों कभी इस टेबल तो कभी उस टेबल तक टहलती रहती थी, बीमार हो जाती है उस वकील की उम्मीद भी जो अपने क्लाइंट को देखते हुए ये समझ जाती थी था कि आज की दिहाड़ी तो बन गई |

वो स्वाद भी बीमार पड़ जाता है जो बचपन से माँ के हाथों से निकलता था, वो स्पर्श भी बीमार पड़ जाता है जब माँ के हाथ की रोटियां अपने हाथ में आती थी, फिर समझ में आता है कि उम्र के साथ माँ के हाथों में भले ही झुर्रियां पड़ गई हों, रूखापन आ गया हो, लेकिन आज तक रोटी कभी भी रुखी नहीं बनी |

बीमार पड़ जाते हैं वो हाथ जो सर पर आ जाते थे, जैसे ही सर में दर्द होता था, वो हाथ, जिसकी गोद में पूरा बचपन गुजरा है, आपने भी एहसास किया होगा की कैसे जब हम बचपन में माँ पापा के गोद में होते थे तो पूरी दुनिया छोटी लगती थी, जैसे हमें कोई सिंघासन मिल गया हो, और हम उसके राजा हो, हाँ ये सिंघासन और राजा वाली फिलिंग भी बीमार हो जाती है |

बीमार हो जाती हैं, उन बूढी आखों की उम्मीदें, जिन्होंने जाने कबसे घर में छोटे छोटे बच्चों से आँख मिचोली खेलने की उम्मीद सजाये बैठी हैं, और बीमार हो जाता है वो बचपन जो बड़े उत्सुकता से “ये आपके चेहरे पर झुर्रियां क्यूँ पड़ गई” जैसा कोई मासूम सा सवाल पूछता है |
बीमार हो जाते हैं वो सफ़ेद बाल जो चाहते हैं कि कोई काले बालों वाला बचपन लिए हुए खीचें उन्हें |
बीमार हो जाती हैं वो उम्मीदें जिन्हें भरोसा होता है की एकबार फिर से बचपन तो लौट के आएगा ही, जब घर में कोई बच्चा अपना बचपन जी रहा होगा |



हाँ, माँ बाप कभी अकेले बीमार नहीं होते |  

Sunday 10 June 2018



गाँव से दिल्ली आये हुए अभी महज तीन महीने ही हुए होंगे, दिल्ली समझ से परे थी, भागती दौड़ती  दिल्ली के साथ ताल से ताल मिलाने के चक्कर में रोज शाम को थक जाता था लेकिन हिम्मत नहीं थकती थी कभी, अगली सुबह फिर से लग जाते थे | पैसे की तंगहाली थी, पहली जॉब करीब ३००० तक की थी, उसमें से भी दिल्ली के लगभग हर कोने में जाना होता था तो कमाई का एक बड़ा हिस्सा तो किराए में ही चला जाता था, उन दिनों डीटीसी बसों का अधिकतम किराया 7 रूपये होता था, लेकिन इसको देने में 7 करम हो जाते थे. खैर जो भी था, लंच में 5 रूपये के छोले कुल्छे से बेहतर कुछ होता नहीं था उन दिनों, क्युकी इससे ज्यादा अफोर्ड करने की कूबत नहीं थी, हाँ इसमें में एक गुंजाईश ये होती थी कि रोटी घर से बना कर लाई जाये और 2 रूपये के छोले लेकर लंच कर लिया जाये, जो अक्सर होता  भी था, अख़बार में लिपटी रोटियां दोपहर तक सुख जाती थी, लेकिन हमने कभी अपने अरमान नहीं सूखने दिए, इतनी उम्मीद हमेशा थी की इन्ही अख़बारों में कभी हम भी छपेंगे|

खैर उत्तम नगर से जैसे जैसे बस साउथ दिल्ली की तरफ बढती थी, साउथ एक्स की चकाचौध उड़ने की चाहत बढ़ा देती, रिपोर्टिंग के लिए ऑफिस में हफ्ते में 2-3 बार जाना पड़ता था, बहुत ख़ुशी मिलती थी ऑफिस में जाकर, क्युकी वहां के टेलीफोन में एसटीडी भी थी, और चोरी छुपे 2-4 कॉल कर ही लिया करते थे दोस्तों को, अपने मेनेजर को कंप्यूटर पर अंगुलियाँ चलाते देखकर आखों में चमक आती थी, तब तक के हालात ये थे कि मैंने माउस भी टच नहीं किया था कभी, गाँव से जब निकला था तो एक कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खुला था लेकिन फ़ीस ढाई सौ रूपये थी, तो वो बस मेरे लिए एक खबर बनकर रह गई थी |

उस दिन भी ऑफिस आया लेकिन कुछ अलग था उस दिन, उस शख्स को मैंने पहले कभी नहीं देखा था ऑफिस में, हालाँकि ऐसे बहुत लोग मिलते थे जो नए होते थे मेरे लिए ऑफिस में पर इनके साथ बात कुछ अलग थी, ये एक कोने में अपनी दुनिया में मस्त थे, बिलकुल शांत, किसी के आने जाने की कोई फिकर नहीं, और सामने था लैपटॉप. बस ये लैपटॉप जो था, यही था अलग मेरे लिए उस दिन, मैंने एक पल में ही इनके बहुत अमीर होने के सारे प्रमाण इक्कठे कर लिए थे, लैपटॉप लग्जरी थी मेरे लिए, ऐसी लग्जरी जिसको इतने करीब से मैंने कभी नहीं देखा था, मन हुआ और पास जाकर देखते हैं लेकिन हिम्मत नही हुई. सपने बड़े होते जा रहे थे, और अच्छी बात ये थी कि इन्सान जो देख लेता है उसके सपने साफ साफ देख पाता है, मुझे भी लैपटॉप दिखने लगा था अपने सपनों में |

अगली बार फिर से ऑफिस गया तो वो सर फिर से वहीँ थे, जोगिन्दर, उस ऑफिस का ऑफिस बॉय था ने बताया कि ये सर रिसर्च कर रहे हैं, अब तो बात और बड़ी हो गई थी, क्यूंकि उन दिनों मेरे हिसाब से रिसर्च केवल साइंटिस्ट लोग ही करते थे |
मै चाहता था की बात करू लेकिन हिम्मत बार बार जवाब दे रही थी. अब जब भी ऑफिस आता उन्हें जरुर खोजता और अन्दर ही अन्दर जाने कितनी बातें कर लेता खुद से|

उसदिन बात कुछ और भी अलग थी,  ऑफिस में एक पेपर था जिसपर उन्ही लैपटॉप वाले साहब की फोटो छपी थी, लोग बातें और बधाई दोनों शेयर कर रहे थे उनसे , मैंने भी जानने कि कोशिश की तो पता चला “ईरफान आलम सर ने जीटीवी का कोई कांटेस्ट जीत लिया है अपने बिजनेस आइडिया से, और उसमें इनको करोड़ रूपये तक का ऑफर भी आया है”. सच बोलूं तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था मुझे, मैंने तो पहले ही जान लिया था की जिनके पास लैपटॉप है वो कोई छोटा मोटा इन्सान तो होगा नहीं. खैर आगे पता चला कि ये आईआईएम से पढ़ें हुए हैं, सच्ची में नहीं समझ में आया था की आईआईएम क्या होता है. लेकिन अब सर से बात करने कि इच्छा प्रबल होती जा रही थी.

और मै एक दिन सर के पास चला ही गया, मेरे पास ना बातें थी न बात करने की हिम्मत, समझ में नहीं आया की क्या बोलूं तो कांपती आवाज़ में पूछ लिया कि सर आगे बढ़ने के लिए क्या करूँ?  “गर्ल फ्रेंड है तुम्हारी” इरफ़ान सर ने तपाक से पूछ लिया था |
मेरा तो जैसे गला ही सूख गया हो, जिसने “नदिया के पार” जैसी शुद्ध देशी फिल्म नानी के गाँव में भी छुप के देखी हो उसकी जिंदगी में गर्ल फ्रेंड होना एक क्राइम से कम नहीं था. मैंने झेंपते हुए बोला, मै नहीं पढता इन चक्करों में सर, काम करने आये हैं गाँव से ये सब करने थोड़ी |
तो बना लो एक, बहुत कुछ सीख जाओगे – इरफ़ान सर                 
शायद कुछ और एक दो इधर की बातें करके मै लौट आया था लेकिन, जैसे लगा था कि मेरा मजाक उड़ाया गया हो, मैंने मन ही मन ही सोच रहा था कि यार मजे ले लिए बन्दे ने , गर्ल फ्रेंड बनाने का आगे बढ़ने से क्या कनेक्शन है ? फिर जैसे भरोसा उठ गया था मुझे उनकी समझदारी से उस दिन. उसके बाद नार्मल नमस्ते से आगे बहुत बात नहीं हुई कभी सर से, नंबर ले लिया था मैंने उनका, लेकिन कभी फोन नहीं किया कभी, और एक दिन उनका ऑफिस आना बंद हो गया |

जिंदगी में मैंने भी कई पड़ाव लिए, ऑफिस, लैपटॉप, इन्टरनेट जुड़ते गए, लेकिन इरफ़ान सर की ये बात कभी दिमाग से गई नहीं, गूगल पर देखता रहता था, पढता रहता, youtube पर वीडियोज देखे इनके , बताया लोगों को कि इन्होने ने मुझे ये एडवाइस दी थी कभी |
अब मुझे हार्वर्ड और आईआईएम दोनों समझ में आ गये थे, मजा आता था अब सोच कर, प्राउड फील होता तह कि मै मिल चूका हूँ इनसे, लेकिन बात करने के लिए कोई नंबर नहीं था|

करीब एक साल बाद सोचा आज तो बातकरनी ही है, गूगल पर थोडा हाथ पांव मारने से नंबर मिल ही गया, काल लगाया, तो फोन बज गया, लगा की नंबर तो सही है कम से कम, फोन उठा तो आवाज़ पहचान गया मै, लेकिन सवाल ये था, कि क्या 11 साल बाद ये मुझे पहचानेंगे, तो उसी एडवाइज के हवाले से बात की तो तुरंत पहचान गए |
आज जब पिछले हफ्ते सर से मिलने का मौका मिला तो खूब बातें हुई, मैने एक एक करके सारी बातें बताई, खूब हसें हम दोनों, लेकिन एक बात जो उस वक्त भी थी और आज भी कायम लगी मुझे, इनकी सादगी और सहजता, लगा नहीं की इतनी बढ़ी शख्शियत से यूँ मुलाकात हो रही है और बातों बातों में 3 घंटे कब निकल गए पता  ही नहीं चला |
मजा तो तब आया जब इन्होने ने ये बताया कि उनदिनों मै भी डीटीसी बसों में ही ट्रेवेल करता था बहुत बार, और कई बार तो पैसे बचाने के लिए स्टाफ भी बोलक्र काम चलायें हैं , पुरे बस में हाथ लैपटॉप पर ही होता तह क्यूंकि लगभग वो एकलौते होते थे जो डीटीसी में लैपटॉप लेकर ट्रेवेल करते थे |
मैंने आजतक कभी कोई चीज लग्जरी की चाहत में में नहीं ली, बल्कि तब ली जब वो जरुरत बन जाती थी – इरफ़ान आलम



शुक्रिया सर लगातार इंस्पायर करने के लिए | 

Thursday 3 May 2018



अब आंधियां बहुत डराती हैं, बिलकुल अजीज नहीं लगती, धुल समेटे हुए आखों में चुभती हैं अब, पहले नहीं होता था ऐसा, बचपन में गाँव वाली आंधियां बिलकुल ऐसी नहीं होती थीं, गाँव में छोपड़ीयां होती थी, मिटटी के मकान थे, बांस पर टिकाये हुए छप्पर होते थे, कुछ भी उतना मजबूत नहीं था जितना आज शहर के मकान हैं, लेकिन इतना डर नहीं लगता था | हम आंधियां आते ही घर से बाहर निकल जाते थे, बगीचे में आंधी से दो दो हाथ करने के लिए. आम के सीजन में तो जैसे गुनाह होता था घर में रहना, जहाँ हमारा बचपन आंधी के आने से खुश होता था  कि कच्चे पके आम पेड़ों से गिरेंगे वहीँ हमारे बड़े बूढ़े दुखी भी होते थे फसलों की बर्बादी के लिए, आधियां घर आंगन सब एक कर देती थीं , घर में आम, जामुन, बेर, अमरुद की पत्तियां और मिट्टी, सब घर में आ जाती थी, सामने के पेड़ से आम के कुछ कच्चे पके फल भी आ जाते थे साथ में, हवा तेज होती थी, लेकिन बारिश के साथ वो मिट्टी के गिले होते ही उसकी सोंधी खुशबू अब नसीब भी नहीं होती |
खेतों में गेंहू की खड़ी फसलें जमीन पर आ जाती थीं, और जो फसलें कटी होती थीं, वो एक खेतों से दुसरे खेतों में चली जाती थी, लेकिन आज तक कभी एक दुसरे में मिली हुई फसलों के वजह किसी में फासले नहीं हुए, किसी ने किसी को इस बात के लिए नहीं सुनाया या लड़ाई की कि  तुम्हारे खेत में मेरी फसल उड़कर चली गई या ये मेरी है या तेरी है  |

आधियों में बांस के पेड़ों से चुर्र चुर्र की आवाजें डराती थीं, जामुन के पेड़ की टहनियां के लिए तैयार होती थीं, लेकिन आम के पेड़ों के नीचे गाँव का हर बचपन आधियों को जीभर के जीता था, हमारे छोटे छोटे पॉकेट आम और दुसरे फलों से भर जाते थे, और उसके बाद आता था हमारा गमझा जिसके एक सिरे को बांधकर हम अपना स्टोर रूम बनाते थे | बिलकुल डर नहीं था, आधियों ने कभी नहीं डराया इतना |
कितना गजब का माहौल होता था आंधी के आने से पहले से लेकर आधी के ख़तम होने तक हम बगीचा नहीं छोड़ते थे कभी, हवा के शांत होते ही जैसे हमारे अन्दर कोई जासूस घुस जाता था और बगीचे के हर कोने की तलाशी शुरू हो जाती थी, हर पत्ते को पलट के देखा जाता था कोई आम तो नहीं छुपा बैठा है वहां, ऐसा कभी नहीं हुआ कि बिना तस्सली के हमने कभी मैदान छोड़ा हो | हर आंधी के अगले दिन हर इम्पोर्टेंट काम के साथ एक काम टीवी एंटीना को फिर से सही दिशा में लगाना भी सबसे अहम् काम होता था
आंधी के बाद हर घर में कच्चे आमों की अमिया से लेकर खट्टी मीठी चटनी बननी शुरू हो जाती थी या आम ज्यादा हुए तो दरवाजे पर कटे हुए कच्चे आम आचार बनने के लिए तैयार मिलते थे, उन दिनों  गाँव में वेस्ट मैनेजमेंट बिना किसी मैनेजमेंट डिग्री के बड़ी आसानी से कर लिया जाता था |
शहर की आंधियां हमें कभी बाहर नहीं रहने देती, हवा चलती है कि हम घर में दरवाजे बंद कर लेते हैं, क्युकी यहाँ आधियों में आम के पत्ते नहीं उड़ते, यहाँ उड़ते हैं, प्लास्टिक के थैले, पेपर प्लेट्स, काली पोलीथिन में हर घर से निकला हुआ कूड़ा कचरा और सड़क पर वो धुल जो गाड़ियों के टायरों में चिपकने से  से छूट जाती हैं |


इन आधियों में माँ बाप बच्चों को घर में जैसे कैद कर देते है और फिर टीवी ऑन कर लेते हैं ये जानने के लिए कि आधी को किस किस चैनल पर सनसनी बोलकर दिखाया जा रहा है, लेकिन थोड़ी ही देर में टीवी पर मौसम ख़राब होने का मैसेज आ जाता है और हम यूँ चिढ़ते हैं जैसे हमे ये पता ही नहीं था, कि बाहर हवा बहुत तेज है |

Friday 23 March 2018


उसकी दाढ़ी पर सालों से कोई कैची या रेजर नहीं चली थी, लग रहा था जैसे तेज धुप या आग लगने से किसी पतझड़ की पत्तियां सिकुड़ के सुख गईं हों, उसके बालों की भी यही हालत थी, सर के बाल कर्ली हो चले थे, और धीरे धीरे लटें बनने लगी थी उसमें, मै अक्सर बचपन में जब किसी के कर्ली बाल देखता तो मन में सोचता था की मेरे बाल कर्ली क्यूँ नहीं हैं, मुझे बहुत पसंद थे कर्ली बाल उस समय लेकिन ये कोई नेचुरल तरीके के कर्ली बाल नहीं थे, इन बालों ने वर्षो से कोई सलून नहीं देखा था, इन्हें कभी किसी तेल की नमीं नहीं मिली थे, किसी कंघा ने इन्हें सवारने का काम नहीं किया था, ना ही शायद इन बालों से कोई शीशा रूबरू हुआ था, लेकिन वो मस्त था, बिलकुल मस्त, सर्दी का मौसम धीरे धीरे ख़त्म हो रहा था और लेकिन सुबह सुबह अभी भी उसका एहसास बराबर बना हुआ था, मै पार्क में रोज के तरह उस दिन भी जोगिंग कर रहा था, कभी तेज तेज चलता तो कभी हलके से दौड़ने लगता, बगल के पार्क में कुछ क्रिकेट खेलते हुए अपना बचपन और बचपना दोनों जी रहे थे, उनको देख कर साफ़ साफ़ लग रहा था कि वो मस्त है अपनी जिंदगी में, उन्हें मेरे जैसे जोगिंग के साथ साथ कितने चक्कर लग गये और कितनी कैलोरी बर्न हो गई, इसका हिसाब किताब रखने की कोई टेंशन नहीं थी, उन्हें ये भी फर्क नहीं पड़ रहा था कि वो कबसे खेल रहे हैं, वो पार्क के कितने चक्कर लग गए, जैसे किसी गुना गणित से फ्री थे, उनके हाथों में कोई स्मार्ट वाच नहीं थी, नतीजन हर सेकंड कितने स्टेप्स हुए ये देखने के बंधन से मुक्त थे वो, वो तो खेलते हुए एक दुसरे की मुस्कराहट देख सकते थे. इन्सान भी अजीब हो चला है, पार्क में जाता तो जरुर है लेकिन कैलरी बर्न की गिनती, स्मार्ट वाच की कैलकुलेशन, और फिटनेश ज्ञान में इतना खो जाता है की प्रकृति की गोद में जाकर भी अनाथ बना रहा रहता है |

मै हर चक्कर में उसे देखता जा रहा रहा था, वो दो दिन फटी शाल साल और चादर लपेटे हुए कभी किसी कोने बैठा मिलता तो कभी चलते हुए, लेकिन मस्त था, जैसे किसी से किसी भी तरह की शिकायत न हो, पार्क में टहलते हुए भी ठहलने वाले फैशन से दूर, मै मन ही मन उसके पागल होने पर उसे बिना बताये तरस खा रहा था, अच्छा, पागल होना भी अपने आप में एक अवस्था है न, सम्पूर्ण अवस्था, जो किसी शिकायत, उम्मीद, कॉम्पिटिशन, प्रॉफिट और लोस की दुनिया से बाहर हो जाती हो जैसे, वो बिलकुल वैसे ही लग रहा था मुझे .उसे देख के ऐसा लग रहा था जैसे कि वो भी हम पर उतना ही तरस खा रहा होगा जितना मै उस पर खा रहा था |

भैया गेंद पकड़ा दो, पीछे से कुछ बच्चों की आवाज़ एक साथ आई, साथ ही मेरे सामने से एक गेंद निकलते हुए बगल के झाड़ी में फंस गई थी, मेरे कानों में इयरफोन लगे थे, जाहिर है मै गाने सुनते हुए टहल रहा था लेकिन वाल्यूम इतना तेज नहीं था कि मैंने वो आवाज़ न सुनी हो. लेकिन इयरफोन का फायदा उठाते हुए मै आगे बढ़ गया, जैसे की मैंने कुछ सुना ही न हो, साथ ही मुझे ये भी एहसास हुआ कि मै इरिटेट होते हुए ये बुदबुदाया हो कि तुम्हारी गेंद देने के लिए पार्क में थोड़े आयें हैं, लेकिन पता नहीं क्यूंकि उसके बाद भी मै बच्चो को ये बताना चाह रहा था कि वो गेंद किधर गई है, इन्सान बड़ा हो जाये ठीक है, लेकिन अगर उसके अन्दर का बचपना मर जाये तो ये भी एक तरह की त्रासदी ही होती है.
मेरे ठीक पीछे वो शख्स था जिसको पिछले कुछ समय में मै कई बार पागल का सर्टिफिकेट दे चूका था, , इससे पहले की बच्चे उधर आते वो उठा और उस झाडी में घुस गया, शायद एक मिनट के बाद उसके हाथ में वो गेंद थी और उसने मुस्कराते हुए वो गेंद जोर से उन बच्चों के तरफ फेक दी, मै निशब्द था, समझ में नहीं आ रहा था कि क्या एक्सप्रेशन दूँ और किसे, बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, उनके पास एक दर्शक था जो उनके खेल को एन्जॉय कर रहा था, एक ऐसा दर्शक था जो अपने तरफ से ही सही लेकिन उस खेल का हिस्सा था, और मै उस पार्क में अकेले भाग रहा था अपने जोगिग सोंग्स, स्मार्ट वाच, केलेरी कैलकुलेशन, रिबोक के ट्रैकसूट और जूतों के साथ, और अजीब बात तो ये थी कि मै उसे पागल भी समझ रहा था |


(प्रवीण)

Thursday 22 March 2018





ये दुनिया एक क्रिकेट ग्राउंड की तरह है, और जिन्दगी उस दर्शक की तरह जो स्टेडियम में बैठ कर निहार रही हो हमें, कभी तालियाँ बजाती, चीयर करती हुई, कभी मोटीवेट करते हुए, कभी मिस हुए शॉट को देखकर कचोटते हुए, कभी गुस्से में कोसते हुए तो कभी हमारे रंग में ढलकर हमें साथ देते हुए, लेकिन हर बार ये जिंदगी यही कहती हैं कि, कोई बात नहीं रिजल्ट जो भी हो दुबारा खेलने का मौका हमेशा हमारे साथ है और जहाँ दुबारा खेलने का मौका है, वहां पहले से बेहतर परफॉर्म करने के चांसेज भी जरुर मिलते हैं  |

जिंदगी जैसे कभी किसी के साथ कुछ गलत नहीं करती, हाँ कई बार लगता है कि टॉस जीतने वाला ज्यादा सौभाग्यशाली है, लेकिन मौका तो दूसरी टीम को भी मिलता है न, क्यूँ की अगर दूसरी टीम को मौका नहीं मिला तो पहले वाले के टॉस जीतने का  कोई वजूद नहीं रहता, बिलकुल हमारे खट्टे मीठे दिनों की तरह, अगर सब कुछ ठीक ही हो रहा हो तो फिर उसका वजूद ख़त्म हो जाता है या फिर पहले जैसे ख़ुशी नहीं मिलती, बिलकुल उस चुटकुले की तरह जिसे जितनी बार सुनो उसका मज़ा कम होता जाता है |

मैंने कई बार जिंदगी की जीभर के कोसा है, जीभर के गालियाँ भी दी हैं, जैसे कोई प्रोमिस तोड़ दिया हो जिंदगी ने मुझसे, लेकिन शांत होकर सोचा तो कभी कुछ ऐसा वाकया मिला ही नहीं जहाँ पर जिंदगी ने मुझसे कोई वादा किया हो, और जब कोई वादा ही न हो, तो वादे का टूटना कैसा , फिर मुझे एहसास हुआ कि ये तो एकतरफा था सब कुछ, मैंने ही टॉस उझाला हो मैंने ही टॉस जीता हो, मैंने ही खेला और जीतने की कोशिश भी की और हारने के बाद जीभर के कोसा हो, लेकिन ऐसा मैच सच में होता कहाँ है भला, सपनो में भी तो नहीं होता है ऐसा कुछ, शायद दुनिया में जैसे कुछ भी अकेले नहीं होता है, हर किसी के साथ किसी न किसी का, कोई न कोई वजूद, जरुर जुड़ा होता है, कई बार दिखता है तो कई बार नहीं दीखता, वैसे बात तो ये भी है न कि सपने भी देखने के लिए महज आखें नहीं चाहिए होती हैं, उन आखों में नींद भी तो बहुत जरुरी होती है और शायद ऐसे नींद वाले सपने टिकाऊ भी तो नहीं होते, नींद खुलने पर कभी याद आते हैं तो कभी भूल जाते हैं |

कई बार मुझे जिंदगी बिलकुल उस बैटिंग पारी की तरह लगती है जो सलामी जोड़ी की तरह आपके साथ खेलने आती है, साथ देती है, और हम खेलते रहते हैं और रन बनता रहता है, लेकिन ऐसा होता ही कहाँ है किसी खेल में, जिसमे सलामी जोड़ी टूटती न हो, लेकिन साथ ही जिंदगी फिर से एक नए रूप में नए बल्लेबाज बनके आ जाती है, हम फिर खेलना शुरू करते हैं, खेलते जाते हैं रन बनाते जाते हैं, कई बार आउट भी हो जाते हैं लेकिन ये बल्लेबाज के आने जाने का सिलसिला चलता ही रहता है, जैसे जिंदगी कहना चाहती हो, कि तुम तो अपने आखिरी ओवर तक टिके रहने की कोशिश करो मै साथ देती रहूंगी और तब तक साथ देती रहूंगी जब तक तुम खेलते रहोगे, मै तुम्हारे साथ ही हूँ एक वादे के साथ जो उस बैटिंग के आखिरी जोड़ी के साथ होता है कि आखिरी जोड़ी में आउट कोई भी हो दूसरा बल्लेबाज भी उसके साथ ही लौट जाता है पवेलियन उसका साथ देते हुए |

हाँ जिंदगी कभी अकेला नहीं छोडती बिलकुल उस खेल के तरह जिसमें कम से कम दो लोग तो चाहिए ही होते हैं, जैसे मै और मेरी जिंदगी |

Wednesday 21 March 2018






उन दिनों ताज़ा ताज़ा पेपर पढने का शौक हुआ था, पेपर पढना इसलिए भी मुमकिन हो पा रहा था क्यूंकि BA करने के लिए जिस कॉलेज में मैंने एडमिशन लिया था वहां जाने के लिए मुझे ट्रेन लेनी पड़ती थी, और वो ट्रेन के आने का वक्त सुबह 8 बजे होता था, मै अक्सर समय पर स्टेशन पहुच जाता था, हालाकिं ऐसा बहुत कम होता था की ट्रेन कभी टाइम पर आती हो लेकिन महीने में कभी कभार टाइम से आने पर कॉलेज का छुट जाता था और फिर उसके बाद एक ही विकल्प होता था साइकिल से कम से कम 20 किलोमीटर जाना, जो बिलकुल पसंद नहीं था|
खैर, ट्रेन अक्सर लेट ही आती थी, इस पुरे इंतजार में जो वक्त मिलता था वो न्यूज़ पेपर पढने में लग जाता था |
ठीक से याद नहीं, लेकिन शायद वो बुधवार का दैनिक जागरण रहा होगा, जोश नाम का एक साप्ताहिक आता था, जिसमे शिक्षा और नौकरी से जुडी हुई जानकारियां होती थी, उसमे लिखा था की अगले हफ्ते टीचर्स डे है और आप अपने टीचर के लिए क्या क्या गिफ्ट ले सकते हैं पर कई सारे ओप्संस थे|
कभी मनाया नहीं था टीचर्स डे, मैंने तो साल के पहले दिन पर दिए जाने वाले ग्रीटिंग्स कार्ड्स को भी दुकानों पर ही सजा देखा था, ना किसी को दिया कभी, ना किसी से मिला कभी |
समस्या बस इस बात की नहीं थी कि ग्रीटिंग्स कार्ड्स जैसे किसी मौके को मानना नहीं आता था, बल्कि असली समस्या ये थी कि कॉपी किताबों को खरीदने के बाद जो थोड़ी बहुत पैसे बचते थे, वे कभी इतने नहीं होते थे कि उनसे ये इस तरह का कुछ किया जा सके.  लेकिन ये वाला टीचर्स डे थोडा सा अलग लगा था, मुझे उस बार, ये टीचर्स डे का कमाल नहीं था बल्कि ये तो पोलिटिकल साइंस वाले सर का इन्फ्लुएंस था. कॉलेज के शुरुवाती दिनों के कुछ क्लासेस में ही वो मुझे अलग दिखे थे, शायद वो उनकी एनर्जी, मिलनसार व्यतित्व, उनके पढ़ाने और समझाने के आसान तरीके, या यूँ कहें की पढ़ाने के प्रति उनका पैशन ने मुझे उनका मुरीद बनाया था |

लोगों से मिलने और बात करने का फितूर हमेशा से साथ रहा मेरे. सर जखनिया स्टेशन से कुछ दूर एक कमरा किराए पर लेकर रहते थे, जाने कैसे शुरू किया था बात करना याद नहीं है, हाँ लेकिन इतना पता है की वो कहाँ रहते हैं क्यूंकि कई बार उन्हें जाते हुए देखा था, कई बार उधर कुछ चक्कर लगा भी चूका था, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई कि दरवाजा खटखटा कर अन्दर आने की परमिशन ले सकूँ | सुबह जल्दी आ जाता था, क्लासेस 11 बजे से शुरू होती थीं तो काफी वक्त होता था मेरे पास, उस दिन जाने कैसे हिम्मत आई और मैंने नॉक कर दिया था दरवाजा, सर आये, सुबह सुबह तैयार हो रहे थे शायद कॉलेज के लिए,
अरे प्रवीण आओ आओ कैसे आना हुआ!
मेरे पास कुछ खास कहने को नहीं था, न ही बहुत हिम्मत हुई थी , बस मिलने की इच्छा जाहिर कर दी, उन्होंने मुझे अन्दर बुलाया, बैठने के लिए कहा, अन्दर ढेर सारी किताबें थी, स्टडी टेबल पर रखे हुए बड़े सारे नोट्स, कुछ वो नोट्स भी थे जो हमें पढाये गए थे, मतलब सर खुद बड़ी तैयारी के साथ क्लास में आते थे, और यही बात भी थी उनके इम्प्रेसिव होने की | पारलेजी का छोटा सा पैकेट खोलकर मेरे तरफ बढ़ाते हुए हुए कहा, लो पानी पियो, शायद बेहतर लोगों से मिलने की वो मेरी सबसे कीमती प्यास थी, जो बुझ रही थी उस दिन | उस दिन सर तैयार होते रहे. मुझसे बात करते रहे, और मै प्राउड फील करता रहा अपने ऊपर, अपने उस दिन के हिम्मत पर और उनकी सादगी पर | मै उस दिन सर के साथ ही कॉलेज आया था, उनके स्कूटर पर बैठकर, कमाल की फीलिंग थी वो, शायद पहली बार बैठा था स्कूटर पर मै उसदिन, दिमाग में इतनी बाते चल रही थी कि उनसे कुछ और बात नहीं कर पाया था आगे, हाँ इतना ध्यान जरुर दिया की किसने किसने मुझे उनके साथ स्कूटर पर देखा था, आखिरकार ये बड़ी बात न सिर्फ मेरे लिए थी बल्कि मेरे जानने वाले दोस्तों के लिए भी थी |

खैर टीचर्स डे के आते आते मै कई बार जा चुका था सर के पास, सोचा कुछ लेते हैं, पेपर में लिखे सारे ओप्संस मेरे बजट से बाहर थे, तो उनपर सोचना बेमानी था. क्या हो सकता है एक गुरु के लिए, किसी से पूछ भी नहीं सकता था संकोच के कारण, खैर सोचा एक डायरी और पेन लेते हैं | शायद कुल बाईस रूपये थे मेरे पास जाने कबके संजोयी पॉकेटमनी थी वो, मैंने एक छोटी सी शॉप से 15 रुपये की डायरी और 7 रुपये की कलम खरीदी थी, गिफ्ट पैक फ्री में हो गया था और उसदिन सुबह सुबह मै पहुच गया सर के कमरे पर टीचर्स डे मनाने के लिए |

सर का पैर छुआ और दबी आवाज़ में वो गिफ्ट पैक देते हुए बोला-सर आज टीचर्स डे है न, तो ले लिया ये, सर ने वो पैकेट लिया, अरे इसकी क्या जरुरत कहते हुए टेबल पर रख दिया था, पारले जी उस दिन भी मिला था मुझे, और उनके साथ ही आया था मै कॉलेज फिर से |
ये वाकया मै जब भी सोचता हूँ तो मामला बस टीचर्स डे  का नहीं लगता मुझे, मुझे लगता है उस शालीनता और सहजता का जब पहली बार मैंने दरवाजा खटखटाया था और सर ने मुझे अन्दर आने के लिए बोला, वो हिम्मत आज मुझे देश के किसी भी शख्शियत को कॉल करने और मिलने में हिचकने नही देती, उनका सहज व्यवहार मुझे हमेशा सजग रखता है की आज मै जो भी हूँ उसमें सहज होना मेरी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, उनका अप्रोचेबल होना मुझे समझाता है की जुड़े रहिये और इतना स्पेस दीजिये की लोग आपसे जुड़े रहें | वो उनके द्वारा मेरी कविताओ को पहली बार पब्लिश करवाना मुझे हिंदी साहित्य अकादेमी, आल इंडिया रेडिओ और देश के तमाम न्यूज़ पेपर्स तक ले लगा | वो स्कूटर पर पहली बार बैठना मेरे लिए लक्ज़री था, लेकिन उनके साथ बैठना ये बताता है असली लक्ज़री आपका ज्ञान और आपके व्यवहार  में वो सहजता है जो किसी को आपके साथ छोटा फील नहीं कराने देती |


शुक्रिया डॉ धर्मेन्द्र प्रताप श्रीवास्तव सर जाने कितने अनकही बातो के लिए |

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