उन दिनों ताज़ा
ताज़ा पेपर पढने का शौक हुआ था, पेपर पढना इसलिए भी मुमकिन हो पा रहा था
क्यूंकि BA करने
के लिए जिस कॉलेज में मैंने एडमिशन लिया था वहां जाने के लिए मुझे ट्रेन लेनी पड़ती
थी,
और वो ट्रेन के आने का वक्त सुबह 8 बजे होता था, मै अक्सर समय पर स्टेशन पहुच जाता था, हालाकिं ऐसा बहुत कम होता था की ट्रेन कभी टाइम
पर आती हो लेकिन महीने में कभी कभार टाइम से आने पर कॉलेज का छुट जाता था और फिर
उसके बाद एक ही विकल्प होता था साइकिल से कम से कम 20 किलोमीटर जाना, जो बिलकुल पसंद नहीं था|
खैर, ट्रेन अक्सर लेट ही आती थी, इस पुरे इंतजार में जो वक्त मिलता था वो न्यूज़
पेपर पढने में लग जाता था |
ठीक से याद नहीं, लेकिन शायद वो बुधवार का दैनिक जागरण रहा होगा, जोश नाम का एक साप्ताहिक आता था, जिसमे शिक्षा और नौकरी से जुडी हुई जानकारियां
होती थी,
उसमे लिखा था की अगले हफ्ते टीचर्स डे है और आप
अपने टीचर के लिए क्या क्या गिफ्ट ले सकते हैं पर कई सारे ओप्संस थे|
कभी मनाया नहीं
था टीचर्स डे, मैंने
तो साल के पहले दिन पर दिए जाने वाले ग्रीटिंग्स कार्ड्स को भी दुकानों पर ही सजा
देखा था,
ना किसी को दिया कभी, ना किसी से मिला कभी |
समस्या बस इस
बात की नहीं थी कि ग्रीटिंग्स कार्ड्स जैसे किसी मौके को मानना नहीं आता था, बल्कि
असली समस्या ये थी कि कॉपी किताबों को खरीदने के बाद जो थोड़ी बहुत पैसे बचते थे,
वे कभी इतने नहीं होते थे कि उनसे ये इस तरह का कुछ किया जा सके. लेकिन ये वाला टीचर्स डे थोडा सा अलग लगा था,
मुझे उस बार, ये
टीचर्स डे का कमाल नहीं था बल्कि ये तो पोलिटिकल साइंस वाले सर का इन्फ्लुएंस था.
कॉलेज के शुरुवाती दिनों के कुछ क्लासेस में ही वो मुझे अलग दिखे थे, शायद वो उनकी एनर्जी, मिलनसार व्यतित्व, उनके पढ़ाने और समझाने के आसान तरीके, या यूँ कहें की पढ़ाने के प्रति उनका पैशन ने
मुझे उनका मुरीद बनाया था |
लोगों से मिलने
और बात करने का फितूर हमेशा से साथ रहा मेरे. सर जखनिया स्टेशन से कुछ दूर एक कमरा
किराए पर लेकर रहते थे, जाने
कैसे शुरू किया था बात करना याद नहीं है, हाँ लेकिन इतना पता है की वो कहाँ रहते हैं
क्यूंकि कई बार उन्हें जाते हुए देखा था, कई बार उधर कुछ चक्कर लगा भी चूका था, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई कि दरवाजा खटखटा कर
अन्दर आने की परमिशन ले सकूँ | सुबह जल्दी आ जाता था, क्लासेस 11 बजे से शुरू होती थीं तो काफी वक्त
होता था मेरे पास, उस
दिन जाने कैसे हिम्मत आई और मैंने नॉक कर दिया था दरवाजा, सर आये, सुबह सुबह तैयार हो रहे थे शायद कॉलेज के लिए,
अरे प्रवीण आओ
आओ कैसे आना हुआ!
मेरे पास कुछ
खास कहने को नहीं था, न ही बहुत हिम्मत हुई थी , बस मिलने की इच्छा जाहिर कर दी, उन्होंने मुझे अन्दर बुलाया, बैठने के लिए कहा, अन्दर ढेर सारी किताबें थी, स्टडी टेबल पर रखे हुए बड़े सारे नोट्स, कुछ वो नोट्स भी थे जो हमें पढाये गए थे, मतलब सर खुद बड़ी तैयारी के साथ क्लास में आते
थे,
और यही बात भी थी उनके इम्प्रेसिव होने की | पारलेजी का छोटा सा पैकेट खोलकर मेरे तरफ बढ़ाते
हुए हुए कहा, लो
पानी पियो, शायद
बेहतर लोगों से मिलने की वो मेरी सबसे कीमती प्यास थी, जो बुझ रही थी उस दिन | उस दिन सर तैयार होते रहे. मुझसे बात करते रहे, और मै प्राउड फील करता रहा अपने ऊपर, अपने उस दिन के हिम्मत पर और उनकी सादगी पर | मै उस दिन सर के साथ ही कॉलेज आया था, उनके स्कूटर पर बैठकर, कमाल की फीलिंग थी वो, शायद पहली बार बैठा था स्कूटर पर मै उसदिन, दिमाग में इतनी बाते चल रही थी कि उनसे कुछ और
बात नहीं कर पाया था आगे, हाँ इतना ध्यान जरुर दिया की किसने किसने मुझे
उनके साथ स्कूटर पर देखा था, आखिरकार ये बड़ी बात न सिर्फ मेरे लिए थी बल्कि
मेरे जानने वाले दोस्तों के लिए भी थी |
खैर टीचर्स डे
के आते आते मै कई बार जा चुका था सर के पास, सोचा कुछ लेते हैं, पेपर में लिखे सारे ओप्संस मेरे बजट से बाहर थे, तो उनपर सोचना बेमानी था. क्या हो सकता है एक
गुरु के लिए, किसी
से पूछ भी नहीं सकता था संकोच के कारण, खैर सोचा एक डायरी और पेन लेते हैं | शायद कुल बाईस रूपये थे मेरे पास जाने कबके
संजोयी पॉकेटमनी थी वो, मैंने
एक छोटी सी शॉप से 15 रुपये की डायरी और 7 रुपये की कलम खरीदी थी, गिफ्ट पैक फ्री में हो गया था और उसदिन सुबह
सुबह मै पहुच गया सर के कमरे पर टीचर्स डे मनाने के लिए |
सर का पैर छुआ
और दबी आवाज़ में वो गिफ्ट पैक देते हुए बोला-सर आज टीचर्स डे है न, तो ले लिया ये, सर ने वो पैकेट लिया, अरे इसकी क्या जरुरत कहते हुए टेबल पर रख दिया
था,
पारले जी उस दिन भी मिला था मुझे, और उनके साथ ही आया था मै कॉलेज फिर से |
ये वाकया मै जब
भी सोचता हूँ तो मामला बस टीचर्स डे का
नहीं लगता मुझे, मुझे
लगता है उस शालीनता और सहजता का जब पहली बार मैंने दरवाजा खटखटाया था और सर ने मुझे
अन्दर आने के लिए बोला, वो
हिम्मत आज मुझे देश के किसी भी शख्शियत को कॉल करने और मिलने में हिचकने नही देती, उनका सहज व्यवहार मुझे हमेशा सजग रखता है की आज
मै जो भी हूँ उसमें सहज होना मेरी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, उनका अप्रोचेबल होना मुझे समझाता है की जुड़े
रहिये और इतना स्पेस दीजिये की लोग आपसे जुड़े रहें | वो उनके द्वारा मेरी कविताओ को पहली बार पब्लिश
करवाना मुझे हिंदी साहित्य अकादेमी, आल इंडिया रेडिओ और देश के तमाम न्यूज़ पेपर्स
तक ले लगा | वो
स्कूटर पर पहली बार बैठना मेरे लिए लक्ज़री था, लेकिन उनके साथ बैठना ये बताता है
असली लक्ज़री आपका ज्ञान और आपके व्यवहार में
वो सहजता है जो किसी को आपके साथ छोटा फील नहीं कराने देती |
शुक्रिया डॉ धर्मेन्द्र प्रताप श्रीवास्तव सर
जाने कितने अनकही बातो के लिए |
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