Saturday, 16 June 2018



माँ बाप कभी अकेले बीमार नहीं होते,  बीमार हो जाती है हमारी ख्वाहिशें जो कहीं जिन्दा होती हैं, इस भरोसे की शायद कभी बचपन लौट आये फिर से, इनका बीमार होना अचानक ही बड़ा कर देता है उस बच्चे को जो अभी तक ये मानने के लिए तैयार नहीं था कि वो बड़ा हो गया है, बीमार तो वो किचेन भी हो जाता है, जिसका हर कोना कोना गवाह होता है, जो पहले कहीं ज्यादा चमकता था, जब उस पर माँ हाथ लगता था, वो तवे की चमक भी फीकी पड़ जाती है जो पहले ज्यादा चमकती थी, वो सारे बर्तन रंग बदलना शुरू कर देते हैं जैसे सभी बीमार हो गए हों और पीले पड़ने लग जाए जैसे जैसे इन्सान पीला पड़ना शुरू हो जाता है उम्र और बीमारी के चपेट में |

बीमार हो जाते हैं वो सारे खेत खलिहान, बरामदा, दरवाजे की चारपाई, गाय, भैस, और वो गाँव का आवारा कहा जाने वाला कुत्ता भी, जिसको भरोसा था कि हर शाम को खाने के बाद उसे भी एक रोटी मिलती ही है यहाँ, मुझे लगता था कि  हमारे किचेन में खाना तैयार हो गया है इसकी खबर बस हमें ही लगती थी, लेकिन वो कुत्ता भी था जिसको माँ के किचेन के खुशबू रोज खीच लाती थी | हाँ सब के सब बीमार हो जाते है एक साथ |

बीमार हो जाती हैं तहसील में पड़ी फाइलें, जो कभी पापा के हाथों कभी इस टेबल तो कभी उस टेबल तक टहलती रहती थी, बीमार हो जाती है उस वकील की उम्मीद भी जो अपने क्लाइंट को देखते हुए ये समझ जाती थी था कि आज की दिहाड़ी तो बन गई |

वो स्वाद भी बीमार पड़ जाता है जो बचपन से माँ के हाथों से निकलता था, वो स्पर्श भी बीमार पड़ जाता है जब माँ के हाथ की रोटियां अपने हाथ में आती थी, फिर समझ में आता है कि उम्र के साथ माँ के हाथों में भले ही झुर्रियां पड़ गई हों, रूखापन आ गया हो, लेकिन आज तक रोटी कभी भी रुखी नहीं बनी |

बीमार पड़ जाते हैं वो हाथ जो सर पर आ जाते थे, जैसे ही सर में दर्द होता था, वो हाथ, जिसकी गोद में पूरा बचपन गुजरा है, आपने भी एहसास किया होगा की कैसे जब हम बचपन में माँ पापा के गोद में होते थे तो पूरी दुनिया छोटी लगती थी, जैसे हमें कोई सिंघासन मिल गया हो, और हम उसके राजा हो, हाँ ये सिंघासन और राजा वाली फिलिंग भी बीमार हो जाती है |

बीमार हो जाती हैं, उन बूढी आखों की उम्मीदें, जिन्होंने जाने कबसे घर में छोटे छोटे बच्चों से आँख मिचोली खेलने की उम्मीद सजाये बैठी हैं, और बीमार हो जाता है वो बचपन जो बड़े उत्सुकता से “ये आपके चेहरे पर झुर्रियां क्यूँ पड़ गई” जैसा कोई मासूम सा सवाल पूछता है |
बीमार हो जाते हैं वो सफ़ेद बाल जो चाहते हैं कि कोई काले बालों वाला बचपन लिए हुए खीचें उन्हें |
बीमार हो जाती हैं वो उम्मीदें जिन्हें भरोसा होता है की एकबार फिर से बचपन तो लौट के आएगा ही, जब घर में कोई बच्चा अपना बचपन जी रहा होगा |



हाँ, माँ बाप कभी अकेले बीमार नहीं होते |  

Sunday, 10 June 2018



गाँव से दिल्ली आये हुए अभी महज तीन महीने ही हुए होंगे, दिल्ली समझ से परे थी, भागती दौड़ती  दिल्ली के साथ ताल से ताल मिलाने के चक्कर में रोज शाम को थक जाता था लेकिन हिम्मत नहीं थकती थी कभी, अगली सुबह फिर से लग जाते थे | पैसे की तंगहाली थी, पहली जॉब करीब ३००० तक की थी, उसमें से भी दिल्ली के लगभग हर कोने में जाना होता था तो कमाई का एक बड़ा हिस्सा तो किराए में ही चला जाता था, उन दिनों डीटीसी बसों का अधिकतम किराया 7 रूपये होता था, लेकिन इसको देने में 7 करम हो जाते थे. खैर जो भी था, लंच में 5 रूपये के छोले कुल्छे से बेहतर कुछ होता नहीं था उन दिनों, क्युकी इससे ज्यादा अफोर्ड करने की कूबत नहीं थी, हाँ इसमें में एक गुंजाईश ये होती थी कि रोटी घर से बना कर लाई जाये और 2 रूपये के छोले लेकर लंच कर लिया जाये, जो अक्सर होता  भी था, अख़बार में लिपटी रोटियां दोपहर तक सुख जाती थी, लेकिन हमने कभी अपने अरमान नहीं सूखने दिए, इतनी उम्मीद हमेशा थी की इन्ही अख़बारों में कभी हम भी छपेंगे|

खैर उत्तम नगर से जैसे जैसे बस साउथ दिल्ली की तरफ बढती थी, साउथ एक्स की चकाचौध उड़ने की चाहत बढ़ा देती, रिपोर्टिंग के लिए ऑफिस में हफ्ते में 2-3 बार जाना पड़ता था, बहुत ख़ुशी मिलती थी ऑफिस में जाकर, क्युकी वहां के टेलीफोन में एसटीडी भी थी, और चोरी छुपे 2-4 कॉल कर ही लिया करते थे दोस्तों को, अपने मेनेजर को कंप्यूटर पर अंगुलियाँ चलाते देखकर आखों में चमक आती थी, तब तक के हालात ये थे कि मैंने माउस भी टच नहीं किया था कभी, गाँव से जब निकला था तो एक कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खुला था लेकिन फ़ीस ढाई सौ रूपये थी, तो वो बस मेरे लिए एक खबर बनकर रह गई थी |

उस दिन भी ऑफिस आया लेकिन कुछ अलग था उस दिन, उस शख्स को मैंने पहले कभी नहीं देखा था ऑफिस में, हालाँकि ऐसे बहुत लोग मिलते थे जो नए होते थे मेरे लिए ऑफिस में पर इनके साथ बात कुछ अलग थी, ये एक कोने में अपनी दुनिया में मस्त थे, बिलकुल शांत, किसी के आने जाने की कोई फिकर नहीं, और सामने था लैपटॉप. बस ये लैपटॉप जो था, यही था अलग मेरे लिए उस दिन, मैंने एक पल में ही इनके बहुत अमीर होने के सारे प्रमाण इक्कठे कर लिए थे, लैपटॉप लग्जरी थी मेरे लिए, ऐसी लग्जरी जिसको इतने करीब से मैंने कभी नहीं देखा था, मन हुआ और पास जाकर देखते हैं लेकिन हिम्मत नही हुई. सपने बड़े होते जा रहे थे, और अच्छी बात ये थी कि इन्सान जो देख लेता है उसके सपने साफ साफ देख पाता है, मुझे भी लैपटॉप दिखने लगा था अपने सपनों में |

अगली बार फिर से ऑफिस गया तो वो सर फिर से वहीँ थे, जोगिन्दर, उस ऑफिस का ऑफिस बॉय था ने बताया कि ये सर रिसर्च कर रहे हैं, अब तो बात और बड़ी हो गई थी, क्यूंकि उन दिनों मेरे हिसाब से रिसर्च केवल साइंटिस्ट लोग ही करते थे |
मै चाहता था की बात करू लेकिन हिम्मत बार बार जवाब दे रही थी. अब जब भी ऑफिस आता उन्हें जरुर खोजता और अन्दर ही अन्दर जाने कितनी बातें कर लेता खुद से|

उसदिन बात कुछ और भी अलग थी,  ऑफिस में एक पेपर था जिसपर उन्ही लैपटॉप वाले साहब की फोटो छपी थी, लोग बातें और बधाई दोनों शेयर कर रहे थे उनसे , मैंने भी जानने कि कोशिश की तो पता चला “ईरफान आलम सर ने जीटीवी का कोई कांटेस्ट जीत लिया है अपने बिजनेस आइडिया से, और उसमें इनको करोड़ रूपये तक का ऑफर भी आया है”. सच बोलूं तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था मुझे, मैंने तो पहले ही जान लिया था की जिनके पास लैपटॉप है वो कोई छोटा मोटा इन्सान तो होगा नहीं. खैर आगे पता चला कि ये आईआईएम से पढ़ें हुए हैं, सच्ची में नहीं समझ में आया था की आईआईएम क्या होता है. लेकिन अब सर से बात करने कि इच्छा प्रबल होती जा रही थी.

और मै एक दिन सर के पास चला ही गया, मेरे पास ना बातें थी न बात करने की हिम्मत, समझ में नहीं आया की क्या बोलूं तो कांपती आवाज़ में पूछ लिया कि सर आगे बढ़ने के लिए क्या करूँ?  “गर्ल फ्रेंड है तुम्हारी” इरफ़ान सर ने तपाक से पूछ लिया था |
मेरा तो जैसे गला ही सूख गया हो, जिसने “नदिया के पार” जैसी शुद्ध देशी फिल्म नानी के गाँव में भी छुप के देखी हो उसकी जिंदगी में गर्ल फ्रेंड होना एक क्राइम से कम नहीं था. मैंने झेंपते हुए बोला, मै नहीं पढता इन चक्करों में सर, काम करने आये हैं गाँव से ये सब करने थोड़ी |
तो बना लो एक, बहुत कुछ सीख जाओगे – इरफ़ान सर                 
शायद कुछ और एक दो इधर की बातें करके मै लौट आया था लेकिन, जैसे लगा था कि मेरा मजाक उड़ाया गया हो, मैंने मन ही मन ही सोच रहा था कि यार मजे ले लिए बन्दे ने , गर्ल फ्रेंड बनाने का आगे बढ़ने से क्या कनेक्शन है ? फिर जैसे भरोसा उठ गया था मुझे उनकी समझदारी से उस दिन. उसके बाद नार्मल नमस्ते से आगे बहुत बात नहीं हुई कभी सर से, नंबर ले लिया था मैंने उनका, लेकिन कभी फोन नहीं किया कभी, और एक दिन उनका ऑफिस आना बंद हो गया |

जिंदगी में मैंने भी कई पड़ाव लिए, ऑफिस, लैपटॉप, इन्टरनेट जुड़ते गए, लेकिन इरफ़ान सर की ये बात कभी दिमाग से गई नहीं, गूगल पर देखता रहता था, पढता रहता, youtube पर वीडियोज देखे इनके , बताया लोगों को कि इन्होने ने मुझे ये एडवाइस दी थी कभी |
अब मुझे हार्वर्ड और आईआईएम दोनों समझ में आ गये थे, मजा आता था अब सोच कर, प्राउड फील होता तह कि मै मिल चूका हूँ इनसे, लेकिन बात करने के लिए कोई नंबर नहीं था|

करीब एक साल बाद सोचा आज तो बातकरनी ही है, गूगल पर थोडा हाथ पांव मारने से नंबर मिल ही गया, काल लगाया, तो फोन बज गया, लगा की नंबर तो सही है कम से कम, फोन उठा तो आवाज़ पहचान गया मै, लेकिन सवाल ये था, कि क्या 11 साल बाद ये मुझे पहचानेंगे, तो उसी एडवाइज के हवाले से बात की तो तुरंत पहचान गए |
आज जब पिछले हफ्ते सर से मिलने का मौका मिला तो खूब बातें हुई, मैने एक एक करके सारी बातें बताई, खूब हसें हम दोनों, लेकिन एक बात जो उस वक्त भी थी और आज भी कायम लगी मुझे, इनकी सादगी और सहजता, लगा नहीं की इतनी बढ़ी शख्शियत से यूँ मुलाकात हो रही है और बातों बातों में 3 घंटे कब निकल गए पता  ही नहीं चला |
मजा तो तब आया जब इन्होने ने ये बताया कि उनदिनों मै भी डीटीसी बसों में ही ट्रेवेल करता था बहुत बार, और कई बार तो पैसे बचाने के लिए स्टाफ भी बोलक्र काम चलायें हैं , पुरे बस में हाथ लैपटॉप पर ही होता तह क्यूंकि लगभग वो एकलौते होते थे जो डीटीसी में लैपटॉप लेकर ट्रेवेल करते थे |
मैंने आजतक कभी कोई चीज लग्जरी की चाहत में में नहीं ली, बल्कि तब ली जब वो जरुरत बन जाती थी – इरफ़ान आलम



शुक्रिया सर लगातार इंस्पायर करने के लिए | 

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