Sunday, 10 August 2014




साल 2000 दशवीं का रिजल्ट आ गया था, सबके आखों के सामने उनके पुरे साल की मेहनत दिख रही थी, करीब दस महीनों की मेहनत और पुरे साल की उम्मीद बस तीन घंटो के परीक्षा के सफ़र में ही क्यूँ तय करनी पड़ती है ये बात मुझे आज तक समझ में नहीं आयी.

खैर जो भी हो कुछ बातें समझ के परे होती हैं या समझ के परे रखनी पड़ती है. दसवी के बाद बारहवी में एडमिशन लेना था, सोचा पिछले चार साल से एक ही स्कूल में हैं तो चेंज किया जाये. कोई और बताने वाला नहीं था कि क्या करना चाहिए, किस स्कूल में जाये, कहाँ दाखिला ले अपने ही दिमाग के तार झनझनाने थे जो खुद ही पूरी तरह से शशक्त नही हुए थे अभी तक |

अब पता नही इसे मै अपने लिए गाँव में पलने बढ़ने की विडम्बना कहूँ या बिन मांगी और बिन समझी आज़ादी. जुलाई का महीना आते ही भागदौड़ शुरू हो गई ताना बाना बनने लगा की क्या करें यही पढाई करतें हैं या किसी और स्कूल में चलें. मै और मेरा एक दोस्त रामविलास यादव इसी गहन भविष्य निधि के खाते को सजाने सवारने में लगे थे.

फिर तय हुआ की हमारे गाँव से कुछ पंद्रह किलोमीटर दूर एक पर बहुत ही अच्छा सा विद्यालय है, जहाँ का अनुशाशन बहुत ही शख्त है, फिर क्या हम दोनों ने मिलकर तय किया की वही चलते हैं और बारहवीं की पढ़ाई वही से करेंगे. रामविलास ने ये भी बताया की मुझे तो ये भी पता चला है उसी विद्यालय का अपना डिग्री कॉलेज भी है और अगर हम बारहवीं वही से पास करेंगे तो हमें कॉलेज के एडमिशन के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा, सुना है ये लोग अपने विद्यार्थियों को प्राथमिकता देते हैं. एक तीर और दो निशाने, कहावत याद आने लगी, पहली बार लगा की कुछ कहावतें सच में जीती जागती जिन्दगी में मिलती है वर्ना तो इन्हें हम बस इसीलिए याद करते हैं की बोर्ड के परीक्षा में एक नंबर तो मिलेगा ही.

मई की तपती धुप, हम दोनों निकल पड़े थे अपने अपने साइकिल पर उसी स्कूल के तरफ अपने मिशन बारहवीं एडमिशन के लिए. बड़े सारे ख़यालात आ रहे थे मन में की अच्छे स्कूल में पढेंगे तो गाँव में नाम होगा, सीना तान कर कह सकेंगे के हमारे यहाँ तो अनुशाशन इतना कड़ा है की अगर आप लेट होते हो तो घर लौटना पड़ता है, पढाई बहुत अच्छी होती है, और यहाँ तो क्रिकेट खेलने के लिए स्कूल का अपना बहुत बड़ा मैदान है, एन सी सी भी है, और भी बहुत कुछ बातें जो उस दोपहर की कड़ी धुप और पसीने के प्रभाव को कम करने के लिकाफी थी. स्कूल पहुँचते पहुँचते करीब तीन बज गए, एडमिशन का समय चल रहा था जिसके कारण क्लासेस अभी लगनी शुरू नहीं हुई थी. सो लगभग सारे टीचर्स अपने अपने हिसाब से आराम फरमा रहे थे, कुछ लोग तो घर भी लौट गए थे. गेट पर जाकर पूछा तो पता चला की अब कल आना आज तो सारे बड़ेबाबू लोग चले गए हैं. सुनकर ऐसा लगा जैसे खयाली पुलाव में मिर्च ज्यादा डल गई हो |

पंद्रह किलोमीटर साईकिल चलने की थकान अब महसूस होने लगी थी, लगने लगा था की शर्ट पसीने से कुछ गीली सी हो गई है. शायद ये बात हमारे साथ साथ उस सरकारी स्कूल के गेट पर खड़े होने वाले बूढ़े चाचा को समझ में आ गई और फिर उसने अचानक हमें बुलाकर बताया की, वो सामने ऑफिस देख रहे हो, हमने हाँ में गर्दन हिलाई, उसमे चले जाओ बड़ेबाबू आराम कर रहे हैं और भी कई अध्यापक लोग हैं, जाकर बात कर लो एडमिशन फारम कल सुबह आकर ले लेना.

आइडिया अच्छा था हम दोनों के चेहरे पर अचानक ख़ुशी की एक छोटी सी किश्त आई तो एहसास हुआ की प्यास लग रही है, सामने ही लगे सरकारी नल ने पानी पिया और फिर चल दिए अपने मिशन बारहवी के एडमिशन पर फतह करने. ऑफिस से कुछ दूर पर ही हमने साइकिल रोकी और फिर सोचा चलके पता करते हैं. रामविलास ने बोला प्रवीण तु जा और पता करके आ के फ़ीस कितनी लगेगी और कबसे क्लासेस लगनी शुरू होंगी? अचानक मुझे लगा की अरे यही तो मै भी सोच रहा था लेकिन लेट हो गया और रामविलास ने पहले बोल दिया, मै थोडा सा सकपकाया और बोला, नहीं यार तू जा पता कर ले मुझे डर लग रहा है, रामविलास ने मेरी तरफ देखा और फिर से वही बात “तू जा यार, तू अच्छा पूछ लेता है, मुझे सही से पूछने नहीं आता है”. तारीफ कुछ अच्छी सी लगी मुझे लेकिन गलत समय पर हो रही थी, और नाकामयाब गई. मैंने इस बार एक नया आइडिया दिया “दोनों साथ में चलते हैं”. रामविलास ने फिर से मना कर दिया, नहीं यार तू ही जा". पता नहीं क्यूँ हम दोनों को ही उस ऑफिस में बैठे हुए कुछ टीचर्स और बड़े बाबू इतने डरावने क्यूँ लग रहे थे, हमारे दोनों के आत्मविश्वास की धज्जियाँ उस रह थी, खयाली पुलाव में मिर्च के साथ साथ एक और एहसास हुआ के चावल तो कच्चे ही रह गए हैं. बड़ी देर तक हम दोनों के बीच में यही तय होता रहा की कौन जा रहा है पूछने के लिए, और अंत में कुछ भी हासिल नहीं हुआ, चलो अब कल आयेंगे फिर बात करेंगे, ये रामविलास का आइडिया था, और होता भी क्या, हम दोनों के पास कोई और ओप्शन भी तो नही था. साइकिल घर के तरफ मोड़ ली. दोनों शांत थे कोई बात नहीं हो रही थी, साइकिल चलती जा रही थी, शाम के करीब पांच बज रहे थे, सूरज ढल रहा था और उसकी गर्मी भी. लेकिन धुप फिर भी असर कर रही थी, माथे पर निकलते पसीने की हर एक बूँद का एहसास बखूबी हो रहा था. समझ में नहीं आ रहा था की क्या था जो अब तब हमने नहीं सीखा, जिसके बारे में एक भी सवाल बोर्ड के एक्जाम में नहीं था, जिसके ऊपर कोई भी मार्क्स नहीं मिलने वाला था, हमें जिसकी जरुरत का एहसाह आज से पहले नहीं हुआ कभी, जो हमारे हिंदी, इंग्लिश, भूगोल, विज्ञान के किताबों में नहीं दिखा और ना ही कभी हमारे टीचर्स ने इसकी कभी जरूरत नहीं बताई, इस नए से लगने वाले शब्द को पहले भी तो सूना था लेकिन इसकी जरुरत इतनी पड़ेगी, कभी उम्मीद नहीं की थी, काश इसके ऊपर भी बोर्ड के एक्जाम में कुछ मार्क्स होते, तो आज इसके बारे में कुछ जानकारी तो जरुर होती. यूँ बैरन घर नहीं लौट रहे होते.

Sunday, 1 June 2014



 
                                                               (चित्र - गूगल)

शक्ति मिल में हुए रेप के दोषियों को सजा-ऐ-मौत की खबर की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि, हमारे देश के दो कथित नेताओं ने उन दोषियों की याद में राजनितिक मोमबत्तियां जलानी भी शुरू  कर दी | एक ने कहा कि “लड़कों से तो गलती हो ही जाती है, ऐसे में उनको फांसी देना गलत बात है, और अगर मेरी सरकार शाशन में आती है तो बलात्कार विरोधी नियमों में जरुर तबदीली होगी” | देश के मायानगरी में बैठे नेता जी ने तो सारी हदें जैसे पार ही कर दी कहा “रेप के लिए पुरुष के साथ साथ महिलाओं को भी फांसी देनी चाहिए, केवल पुरुष ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं होतें हैं”| जय समाजवाद का नारा लगाने वाले अगर इस तरह से बातें करतें हैं तो चुनावी माहौल की रोटियों को सेंकनें के बाद अगर ये लोग सत्ता में आ जाएँ, तो किस तरह का समाजवाद आएगा इसकी सोच मात्र से रूह काँप जाती है | कहतें हैं इन्सान वही बोलता है जिस बात पर विश्वास करता है और जिस बात पर विश्वास करता है, करता भी वही है | खैर इसकी बानगी तो उत्तर प्रदेश में दिख ही जाती है | आज ये आर्टिकल लिखते हुए ही टीवी में दो ख़बरें आयीं वो भी उत्तर प्रदेश से ही “दबंगों ने एक नाबालिक को छेड़खानी के बाद जिन्दा जला दिया, दूसरी- एक मजदूर महिला के साथ चार दंबंगो ने बलात्कार किया, तफ्तीश के लिए गई पुलिस ने दबंगों के घर नास्ता किया” |  कहाँ है समाजवाद और कैसे हो सकता है ये समाजवाद भला जहाँ समाज के एक सबसे शक्तिशाली स्तम्भ “स्त्री” के स्वाभिमान को सरेआम तार तार कर दिया जाता है और समाजवाद के प्रहरी कहने वाले लोग कहतें हैं की “लड़कों से गलती तो हो ही जाती है” | फिर ऐसे समाज में फूलन देवी जैसे लोग पैदा होतें हैं तो इसमें उनकी गलती ही क्या है ? और जब नेता जी की सोच ऐसी है तो फिर पुलिस दोषियों के घर जाकर चाय नहीं पीयेगी तो और क्या करेगी | अब पुलिस को मरना है क्या किसी को गिरफ्तार करके और भला गिरफ्तारी क्यूँ बच्चों की गलती के लिए कोई गिरफ्तार भी करता है क्या?

लेकिन कभी उसके दर्द को भी करीब से देखने की कोशिश कीजिये जिसके साथ ये कथित अमानवीय घटना घटी है | कैसे तार तार हो जाती है किसी की अस्मिता जीवन भर के लिए, जिसे आप मात्र एक छोटी सी गलती कहतें हैं | मुझे नहीं लगता की बलात्कार के पीड़ित कभी दोषियों को सज़ा मिलने के बाद भी इस अमानवीय घटना से बाहर आ पातें होंगी | खैर ये उत्तर प्रदेश के समाजवाद की पहली घटना नहीं है | जब दो जून 2005 में इसी समाजवादी नेता की सरकार एक दलित महिला (मायावती) के समर्थन लेने से गिरी थी तो इन्ही समाजवादियों ने मायावती के खिलाफ लखनऊ के स्टेट गेस्ट हॉउस में बेशर्मी का कितना बड़ा नंगा नाच खेला था ये जग जाहिर है | खैर दर्द तो उसी को पता चलता है ना जिसके चोट लगी होती है | इसे एक बहुत बड़ी विडम्बना ही कह सकतें हैं कि दो साल पहले सोलह दिसंबर को दिल्ली में चलती बस में हुई बलात्कार की शिकार महिला भी उत्तर प्रदेश की ही रहने वाली थी, जिसके समर्थन में पूरा देश उबल पड़ा था | घरों से लेकर दिल्ली के जंतर मंतर तक आन्दोलन किये गए, मोमबत्तियां जलाई गईं और बुझ भी गई | लेकिन रेप होते रहे और होते रहेंगे अगर हमारे देश के कथित नेताओं यही की कुंठित मानसिकता होगी | शायद अब जरुरत है की इन राजनितिक विचारधाराओं  के खिलाफ आवाज़ उठाई जाएँ, मोमबत्तियां फिर से जलनी चाहिए और जब बूझें तो ऐसे की ये लोग कभी सत्ता में ना आ पायें | तब तक के लिए मेरी तरफ से इन नेताओं को बस यही बोलना है “गेट वेल सून नेता जी” ||    

Sunday, 9 March 2014


वादों से आना.......... घोटालों से जाना,

यही है हमारे........... नेताओं का निशाना,

चाहे जितना बना लो, इन पांच सालों में,

शायद फिर से हो मुश्किलचुनाव जीत पाना...!!

ये पंक्तियाँ करीब मैंने दस साल पहले लिखी थी, अपने कॉलेज के दिनों में. मै पोलिटिकल साइंस का छात्र था और उस दिन अपने कॉलेज में पॉलिटिक्स के ऊपर एक छोटा सा सेमीनार जैसा कुछ हुआ था, टॉपिक तो याद नहीं है पर इतना याद है की कुछ विद्वान लोग बाहर से भी आये थे. यहीं बनी थी ये चार पंक्तियाँ और इसका श्रेय जाता है श्री डॉ धर्मेन्द्र प्रताप श्रीवास्तव, हमारे कॉलेज के पोलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर.
दरअसल इन चार पंक्तियाँ की पहली लाइन मैंने सर से ही सुनी थी और और फिर क्या सेट कर दी तीन लाइनें और इसमें, आखिर नया नया कवि जो बना था. अगले दिन तडके मै सर के रूम पर था, अक्सर आ जाया करता था, बातें करने की लिए कुछ होता तो नहीं था खास लेकिन उनके रूम पर कुछ वक्त बिताना उनकी किताबों की कलेक्शन को देखना, उस छोटे से रूम के एक कोने में पड़े मेज़ के ऊपर रखी हुई एक छोटी सी टेबल वाच, पेन, पेन्सिल, किताबें, और कई सारे A4 साइज़ के सफ़ेद पन्नों पर लिखे हुए नोट्स मुझे हर बार मोटिवेट करते थे. खैर उस दिन कुछ तो था मेरे पास उनको बताने के लिए वो एक लाइन जो अब चार पंक्तियों में कन्वर्ट हो चुकी थी. मुझे याद है मैंने जाते ही उनसे यही पूछा था पहले, सर आपने जो ये कल बोला था, ये बस इतना सा ही है या कुछ और भी है इसके आगे”, नहीं प्रवीण ये तो ऐसे ही निकला था बातों बातों में. सर मैंने इसकी एक कविता बनाई है. और फिर क्या सूना दी.

अच्छा लिखते हो प्रवीण, ऐसे ही कोशिश करते रहो.

ये पंक्तियाँ मेरे लिए आज भी उतनी ही मायने रखती हैं, जितनी उस वक्त थी. एक कवि मन के लिए एक सच्चे श्रोता की अहमियत कितनी होती है इसका अंदाज़ा लगाना एक गुस्ताखी से ज्यादा कुछ और नहीं हो सकती है, और उस समय सर मेरे लिए मेरे पास एकमात्र सच्चे श्रोता थे. होता है ना, की अगर कोई बड़ा व्यक्ति आपकी पीठ थपथपा दे तो इससे बड़ी कोई अचीवमेंट नहीं लगती है, और सर ऐसे पहले इंसान थे जिनकी तारीफ़ ने मुझे शक्ति देनी शुरू की थी. पहले इंसान जिन्होंने पहली बार मेरे लिए ये बोला था की प्रवीण मुझे अपनी कवितायेँ दे दो मै इसको पब्लिश कराने की कोशिश करता हूँ. शायद यही वो वक्त था जब मुझे ये एहसास होने लग गया था की मेरे शब्दों का जोड़ मोड़ सच में एक कविता जैसा लगता है वरना दसवीं और बारहवीं में तो मुझे हिम्मत भी नहीं होती थी कि अपने साथियों को भी ये बता पाऊ की मै शायरी लिख लेता हूँ. यही ताकत है इस चार पंक्तियों के साथ की कहीं बिना लिखे ही दस साल बाद भी मुझे ये याद हैं जैसे मेरे जेहन में छप सी गईं हों, वरना सच कहूँ तो मुझे मेरे लिखे हुए गिन के पांच शेर भी याद नहीं होंगे ठीक से.
सर आपको को शुक्रिया और थैंक्स बोलने की गुस्ताखी सोच से परे हैं, लेकिन जो भी हो वो यादें मुझे आज भी आनंदित करती हैं, और आपसे की हुई बातें गौरवान्वित. 

Thursday, 6 March 2014




अभी तक कानों पर भरोसा नहीं हो रहा है, की मेरी बात अलोक पुराणिक सर से हुई, व्यंग की दुनिया के एक शशक्त हस्ताक्षर, जिनकी लेखनी का एक अपना ही अंदाज़ है जो पढने वालों को अपना दीवाना बनाने के लिए काफी होता है. व्यंग की बातें होठों पर मुस्कान से शुरू होती हैं लेकिन दिल में सीधे गोली की तरह ठां करके लग जातीं हैं. मेरे इस लेखनी के दीवानेपन के कहानी  की शुरुवात आज से करीब तेरह चौदह साल पहले हुई थी जब मैंने अखबार पढना शुरू किया था. सच कहूँ तो इसके पीछे भी इन्ही का हाथ था, गाँव में चाय पकोड़े की दुकानों पर हर दिन अखबार आया करता था, अपने पास तो इतने पैसे भी नहीं होते थे की घर पर अखबार मंगा सके. बुधवार का दिन था, दैनिक जागरण में छपने वाला “जोश” जो साफ्ताहिक हुआ करता था, हाथ लगा. जिसमे कई सारी ऐसी बातें थी जो एक पढने वाले छात्र के लिए फायदे की थी. लेकिन मुझे जो बेहद पसंद आया वो था, पुराणिक सर का प्रपंचतन्त्र. पंचतंत्र तो मै पहले ही पढ़ चूका था, लेकिन उसी से मिलता जुलता इस नए नाम ने मुझे ज्यादा आकर्षित किया, और फिर क्या मज़ा कुछ ऐसा आने लगा की बस बुधवार खास दिनों में शुमार हो गया. हर बुधवार की शाम गाँव के बाज़ार जाता और खोजता की जोश साप्ताहिक कहाँ है. खोजने में बहुत मुश्किल होती थी क्यों की चाय पकोड़े की दुकानों पर अक्सर शाम तक अख़बार के कुछ हिस्से तो ग्राहकों को पकोड़े खिलाने में चले जाते हैं. अगर कही मिल भी जाता तो दुकानदार देता नहीं था. फिर तो एक ही तरीका बचता मेरे पास, की इधर उधर देखो और मौका देखकर लपेटो, जेब में भरो और खिसक लो. सिलसिला शुरू हुआ, मेरी दीवानगी इस कदर बढ़ने लगी थी की जैसे बुधवार के दिन कुछ और सूझता ही नहीं था. हर बुधवार की शाम बाज़ार जाता और पेपर चुरा कर घर पर लाकर अकेले में पढने लगता. दूसरी मुश्किल तो ये भी थी अगर पापा जी मुझे जब भी अख़बार पढ़ते देखते, बोलना शुरू कर देते की अपनी किताबें भी पढ़ लिया करो, बोर्ड के एक्जाम में वही काम आएँगी अख़बार नहीं. दिल लगाकर इन्हें पढ़ लो जिन्दगी में कुछ बन जाओगे. लेकिन इन सब के बावजूद मै हरबार जोश चुराने और पढने में सफल हो जाता था, कमाल का जोश काबिज हुआ था मुझपर इस प्रपंचतन्त्र का.
शायद यही वो समय था जब मेरे मन में भी कुछ लिखने की तमन्ना पैदा होने लगी थी. आज इन्टरनेट पर जैसे ही पुराणिक सर के ब्लॉग के बारे गूगल अंकल ने बताया, तो अपने आपको रोक नहीं पाया.
और मेरी ख़ुशी का ठिकाना लगाना तो तब और मुश्किल हो गया जब ब्लॉग पर सर का मोबाईल नंबर मिला. फिर सोचना क्या था, मुझे उस लेखक का नंबर सामने दिख रहा था जिसने मेरे अन्दर अख़बार पढने की बेचैनी तब पैदा की थी जब उस उम्र में हमारे जैसे लोग अख़बार केवल हीरो हीरोइनों के फोटो के लिए देखा करते थे. देखते ही फ़ोन से नम्बर डायल कर दिया, एक बार को तो लगा की नंबर शायद सही नहीं होगा लेकिन फ़ोन की घंटी बजते ही मेरे दिल की धडकनों ने सुर में सुर मिला लिया और धड़कन बढ़ा दी, लगा शायद ये नंबर सर के किसी असिस्टेंट का होगा. “गुड मोर्निग सर, क्या मै अलोक पुराणिक सर से बात कर रहा हूँ ?
हाँ मै अलोक पुराणिक ही बोल रहा हूँ, एक भारी सी आवाज़ सच में मुझपर बहुत भारी पड़ रही थी, समझ में नहीं आया की अब आगे क्या बोलूं.

घबराती आवाज़ से कुछ और शब्द निकले “सर मै आपका फैन बोल रहा हूँ, सर मेरा नाम प्रवीण है, मै तबसे आपको पढ़ रहा हूँ जब मै दशवीं में था” जैसे सब कुछ एक ही साँस में बोलने की बाध्यता रही हो.
अरे वाह प्रवीण जी, ये तो बहुत अच्छी बात है, कहाँ रहते हैं आप,  सर ने जैसे ही मेरे नाम के साथ जी लगाया, मेरे तो जी और जान दोनों ही खुश हो गए.
फिर क्या था करीब तीन चार मिनट तक बातें चलती रही वो सारी बातें फिर से जीवंत हो गई जो ऊपर लिखने की कोशिश की है. सच कहते की इंसान जितना बड़ा होता है उतना ही शालीन होता है इसका बखूबी एहसास कराया सर ने, फ़ोन रखने के साथ वो ये बोलना नहीं भूले की मै आपका नंबर अपने फ़ोन में सेव कर लेता हूँ, कभी दिल्ली आना हो तो जरुर मिलिए.

सच में दोस्तों बहुत मज़ा आया, इतना की फोन रखते ही मै ये खुशी छुपा नहीं पाया और फिर पूरी दास्तान अपने ट्रेनिंग में सुना डाली.

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