अभी तक कानों पर भरोसा नहीं हो रहा है, की मेरी बात अलोक पुराणिक सर से हुई, व्यंग
की दुनिया के एक शशक्त हस्ताक्षर, जिनकी लेखनी
का एक अपना ही अंदाज़ है जो पढने वालों को अपना दीवाना बनाने के लिए काफी होता है. व्यंग
की बातें होठों पर मुस्कान से शुरू होती हैं लेकिन दिल में सीधे गोली की तरह ठां
करके लग जातीं हैं. मेरे इस लेखनी के दीवानेपन के कहानी की शुरुवात आज से करीब तेरह चौदह साल पहले हुई
थी जब मैंने अखबार पढना शुरू किया था. सच कहूँ तो इसके पीछे भी इन्ही का हाथ था, गाँव
में चाय पकोड़े की दुकानों पर हर दिन अखबार आया करता था, अपने पास तो इतने पैसे भी
नहीं होते थे की घर पर अखबार मंगा सके. बुधवार का दिन था, दैनिक जागरण में छपने
वाला “जोश” जो साफ्ताहिक हुआ करता था, हाथ लगा. जिसमे कई सारी ऐसी बातें थी जो एक
पढने वाले छात्र के लिए फायदे की थी. लेकिन मुझे जो बेहद पसंद आया वो था, पुराणिक सर
का प्रपंचतन्त्र. पंचतंत्र तो मै पहले ही पढ़ चूका था, लेकिन उसी से मिलता जुलता इस
नए नाम ने मुझे ज्यादा आकर्षित किया, और फिर क्या मज़ा कुछ ऐसा आने लगा की बस
बुधवार खास दिनों में शुमार हो गया. हर बुधवार की शाम गाँव के बाज़ार जाता और खोजता
की जोश साप्ताहिक कहाँ है. खोजने में बहुत मुश्किल होती थी क्यों की चाय पकोड़े की
दुकानों पर अक्सर शाम तक अख़बार के कुछ हिस्से तो ग्राहकों को पकोड़े खिलाने में चले
जाते हैं. अगर कही मिल भी जाता तो दुकानदार देता नहीं था. फिर तो एक ही तरीका बचता
मेरे पास, की इधर उधर देखो और मौका देखकर लपेटो, जेब में भरो और खिसक लो. सिलसिला
शुरू हुआ, मेरी दीवानगी इस कदर बढ़ने लगी थी की जैसे बुधवार के दिन कुछ और सूझता ही
नहीं था. हर बुधवार की शाम बाज़ार जाता और पेपर चुरा कर घर पर लाकर अकेले में पढने
लगता. दूसरी मुश्किल तो ये भी थी अगर पापा जी मुझे जब भी अख़बार पढ़ते देखते, बोलना
शुरू कर देते की अपनी किताबें भी पढ़ लिया करो, बोर्ड के एक्जाम में वही काम आएँगी
अख़बार नहीं. दिल लगाकर इन्हें पढ़ लो जिन्दगी में कुछ बन जाओगे. लेकिन इन सब के बावजूद
मै हरबार जोश चुराने और पढने में सफल हो जाता था, कमाल का जोश काबिज हुआ था मुझपर
इस प्रपंचतन्त्र का.
शायद यही वो समय था जब मेरे मन में भी कुछ लिखने की तमन्ना पैदा होने लगी थी.
आज इन्टरनेट पर जैसे ही पुराणिक सर के ब्लॉग के बारे गूगल अंकल ने बताया, तो अपने
आपको रोक नहीं पाया.
और मेरी ख़ुशी का ठिकाना लगाना तो तब और मुश्किल हो गया जब ब्लॉग पर सर का मोबाईल
नंबर मिला. फिर सोचना क्या था, मुझे उस लेखक का नंबर सामने दिख रहा था जिसने मेरे अन्दर
अख़बार पढने की बेचैनी तब पैदा की थी जब उस उम्र में हमारे जैसे लोग अख़बार केवल
हीरो हीरोइनों के फोटो के लिए देखा करते थे. देखते ही फ़ोन से नम्बर डायल कर दिया, एक
बार को तो लगा की नंबर शायद सही नहीं होगा लेकिन फ़ोन की घंटी बजते ही मेरे दिल की
धडकनों ने सुर में सुर मिला लिया और धड़कन बढ़ा दी, लगा शायद ये नंबर सर के किसी
असिस्टेंट का होगा. “गुड मोर्निग सर, क्या मै अलोक पुराणिक सर से बात कर रहा हूँ ?
हाँ मै अलोक पुराणिक ही बोल रहा हूँ, एक भारी सी आवाज़ सच में मुझपर बहुत भारी पड़
रही थी, समझ में नहीं आया की अब आगे क्या बोलूं.
घबराती आवाज़ से कुछ और शब्द निकले “सर मै आपका फैन बोल रहा हूँ, सर मेरा नाम
प्रवीण है, मै तबसे आपको पढ़ रहा हूँ जब मै दशवीं में था” जैसे सब कुछ एक ही साँस
में बोलने की बाध्यता रही हो.
अरे वाह प्रवीण जी, ये तो बहुत अच्छी बात है, कहाँ रहते हैं आप, सर ने जैसे ही मेरे नाम के साथ जी लगाया, मेरे तो
जी और जान दोनों ही खुश हो गए.
फिर क्या था करीब तीन चार मिनट तक बातें चलती रही वो सारी बातें फिर से जीवंत
हो गई जो ऊपर लिखने की कोशिश की है. सच कहते की इंसान जितना बड़ा होता है उतना ही
शालीन होता है इसका बखूबी एहसास कराया सर ने, फ़ोन रखने के साथ वो ये बोलना नहीं
भूले की मै आपका नंबर अपने फ़ोन में सेव कर लेता हूँ, कभी दिल्ली आना हो तो जरुर
मिलिए.
सच में दोस्तों बहुत मज़ा आया, इतना की फोन रखते ही मै ये खुशी छुपा नहीं पाया
और फिर पूरी दास्तान अपने ट्रेनिंग में सुना डाली.
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