Sunday, 9 March 2014


वादों से आना.......... घोटालों से जाना,

यही है हमारे........... नेताओं का निशाना,

चाहे जितना बना लो, इन पांच सालों में,

शायद फिर से हो मुश्किलचुनाव जीत पाना...!!

ये पंक्तियाँ करीब मैंने दस साल पहले लिखी थी, अपने कॉलेज के दिनों में. मै पोलिटिकल साइंस का छात्र था और उस दिन अपने कॉलेज में पॉलिटिक्स के ऊपर एक छोटा सा सेमीनार जैसा कुछ हुआ था, टॉपिक तो याद नहीं है पर इतना याद है की कुछ विद्वान लोग बाहर से भी आये थे. यहीं बनी थी ये चार पंक्तियाँ और इसका श्रेय जाता है श्री डॉ धर्मेन्द्र प्रताप श्रीवास्तव, हमारे कॉलेज के पोलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर.
दरअसल इन चार पंक्तियाँ की पहली लाइन मैंने सर से ही सुनी थी और और फिर क्या सेट कर दी तीन लाइनें और इसमें, आखिर नया नया कवि जो बना था. अगले दिन तडके मै सर के रूम पर था, अक्सर आ जाया करता था, बातें करने की लिए कुछ होता तो नहीं था खास लेकिन उनके रूम पर कुछ वक्त बिताना उनकी किताबों की कलेक्शन को देखना, उस छोटे से रूम के एक कोने में पड़े मेज़ के ऊपर रखी हुई एक छोटी सी टेबल वाच, पेन, पेन्सिल, किताबें, और कई सारे A4 साइज़ के सफ़ेद पन्नों पर लिखे हुए नोट्स मुझे हर बार मोटिवेट करते थे. खैर उस दिन कुछ तो था मेरे पास उनको बताने के लिए वो एक लाइन जो अब चार पंक्तियों में कन्वर्ट हो चुकी थी. मुझे याद है मैंने जाते ही उनसे यही पूछा था पहले, सर आपने जो ये कल बोला था, ये बस इतना सा ही है या कुछ और भी है इसके आगे”, नहीं प्रवीण ये तो ऐसे ही निकला था बातों बातों में. सर मैंने इसकी एक कविता बनाई है. और फिर क्या सूना दी.

अच्छा लिखते हो प्रवीण, ऐसे ही कोशिश करते रहो.

ये पंक्तियाँ मेरे लिए आज भी उतनी ही मायने रखती हैं, जितनी उस वक्त थी. एक कवि मन के लिए एक सच्चे श्रोता की अहमियत कितनी होती है इसका अंदाज़ा लगाना एक गुस्ताखी से ज्यादा कुछ और नहीं हो सकती है, और उस समय सर मेरे लिए मेरे पास एकमात्र सच्चे श्रोता थे. होता है ना, की अगर कोई बड़ा व्यक्ति आपकी पीठ थपथपा दे तो इससे बड़ी कोई अचीवमेंट नहीं लगती है, और सर ऐसे पहले इंसान थे जिनकी तारीफ़ ने मुझे शक्ति देनी शुरू की थी. पहले इंसान जिन्होंने पहली बार मेरे लिए ये बोला था की प्रवीण मुझे अपनी कवितायेँ दे दो मै इसको पब्लिश कराने की कोशिश करता हूँ. शायद यही वो वक्त था जब मुझे ये एहसास होने लग गया था की मेरे शब्दों का जोड़ मोड़ सच में एक कविता जैसा लगता है वरना दसवीं और बारहवीं में तो मुझे हिम्मत भी नहीं होती थी कि अपने साथियों को भी ये बता पाऊ की मै शायरी लिख लेता हूँ. यही ताकत है इस चार पंक्तियों के साथ की कहीं बिना लिखे ही दस साल बाद भी मुझे ये याद हैं जैसे मेरे जेहन में छप सी गईं हों, वरना सच कहूँ तो मुझे मेरे लिखे हुए गिन के पांच शेर भी याद नहीं होंगे ठीक से.
सर आपको को शुक्रिया और थैंक्स बोलने की गुस्ताखी सोच से परे हैं, लेकिन जो भी हो वो यादें मुझे आज भी आनंदित करती हैं, और आपसे की हुई बातें गौरवान्वित. 

Thursday, 6 March 2014




अभी तक कानों पर भरोसा नहीं हो रहा है, की मेरी बात अलोक पुराणिक सर से हुई, व्यंग की दुनिया के एक शशक्त हस्ताक्षर, जिनकी लेखनी का एक अपना ही अंदाज़ है जो पढने वालों को अपना दीवाना बनाने के लिए काफी होता है. व्यंग की बातें होठों पर मुस्कान से शुरू होती हैं लेकिन दिल में सीधे गोली की तरह ठां करके लग जातीं हैं. मेरे इस लेखनी के दीवानेपन के कहानी  की शुरुवात आज से करीब तेरह चौदह साल पहले हुई थी जब मैंने अखबार पढना शुरू किया था. सच कहूँ तो इसके पीछे भी इन्ही का हाथ था, गाँव में चाय पकोड़े की दुकानों पर हर दिन अखबार आया करता था, अपने पास तो इतने पैसे भी नहीं होते थे की घर पर अखबार मंगा सके. बुधवार का दिन था, दैनिक जागरण में छपने वाला “जोश” जो साफ्ताहिक हुआ करता था, हाथ लगा. जिसमे कई सारी ऐसी बातें थी जो एक पढने वाले छात्र के लिए फायदे की थी. लेकिन मुझे जो बेहद पसंद आया वो था, पुराणिक सर का प्रपंचतन्त्र. पंचतंत्र तो मै पहले ही पढ़ चूका था, लेकिन उसी से मिलता जुलता इस नए नाम ने मुझे ज्यादा आकर्षित किया, और फिर क्या मज़ा कुछ ऐसा आने लगा की बस बुधवार खास दिनों में शुमार हो गया. हर बुधवार की शाम गाँव के बाज़ार जाता और खोजता की जोश साप्ताहिक कहाँ है. खोजने में बहुत मुश्किल होती थी क्यों की चाय पकोड़े की दुकानों पर अक्सर शाम तक अख़बार के कुछ हिस्से तो ग्राहकों को पकोड़े खिलाने में चले जाते हैं. अगर कही मिल भी जाता तो दुकानदार देता नहीं था. फिर तो एक ही तरीका बचता मेरे पास, की इधर उधर देखो और मौका देखकर लपेटो, जेब में भरो और खिसक लो. सिलसिला शुरू हुआ, मेरी दीवानगी इस कदर बढ़ने लगी थी की जैसे बुधवार के दिन कुछ और सूझता ही नहीं था. हर बुधवार की शाम बाज़ार जाता और पेपर चुरा कर घर पर लाकर अकेले में पढने लगता. दूसरी मुश्किल तो ये भी थी अगर पापा जी मुझे जब भी अख़बार पढ़ते देखते, बोलना शुरू कर देते की अपनी किताबें भी पढ़ लिया करो, बोर्ड के एक्जाम में वही काम आएँगी अख़बार नहीं. दिल लगाकर इन्हें पढ़ लो जिन्दगी में कुछ बन जाओगे. लेकिन इन सब के बावजूद मै हरबार जोश चुराने और पढने में सफल हो जाता था, कमाल का जोश काबिज हुआ था मुझपर इस प्रपंचतन्त्र का.
शायद यही वो समय था जब मेरे मन में भी कुछ लिखने की तमन्ना पैदा होने लगी थी. आज इन्टरनेट पर जैसे ही पुराणिक सर के ब्लॉग के बारे गूगल अंकल ने बताया, तो अपने आपको रोक नहीं पाया.
और मेरी ख़ुशी का ठिकाना लगाना तो तब और मुश्किल हो गया जब ब्लॉग पर सर का मोबाईल नंबर मिला. फिर सोचना क्या था, मुझे उस लेखक का नंबर सामने दिख रहा था जिसने मेरे अन्दर अख़बार पढने की बेचैनी तब पैदा की थी जब उस उम्र में हमारे जैसे लोग अख़बार केवल हीरो हीरोइनों के फोटो के लिए देखा करते थे. देखते ही फ़ोन से नम्बर डायल कर दिया, एक बार को तो लगा की नंबर शायद सही नहीं होगा लेकिन फ़ोन की घंटी बजते ही मेरे दिल की धडकनों ने सुर में सुर मिला लिया और धड़कन बढ़ा दी, लगा शायद ये नंबर सर के किसी असिस्टेंट का होगा. “गुड मोर्निग सर, क्या मै अलोक पुराणिक सर से बात कर रहा हूँ ?
हाँ मै अलोक पुराणिक ही बोल रहा हूँ, एक भारी सी आवाज़ सच में मुझपर बहुत भारी पड़ रही थी, समझ में नहीं आया की अब आगे क्या बोलूं.

घबराती आवाज़ से कुछ और शब्द निकले “सर मै आपका फैन बोल रहा हूँ, सर मेरा नाम प्रवीण है, मै तबसे आपको पढ़ रहा हूँ जब मै दशवीं में था” जैसे सब कुछ एक ही साँस में बोलने की बाध्यता रही हो.
अरे वाह प्रवीण जी, ये तो बहुत अच्छी बात है, कहाँ रहते हैं आप,  सर ने जैसे ही मेरे नाम के साथ जी लगाया, मेरे तो जी और जान दोनों ही खुश हो गए.
फिर क्या था करीब तीन चार मिनट तक बातें चलती रही वो सारी बातें फिर से जीवंत हो गई जो ऊपर लिखने की कोशिश की है. सच कहते की इंसान जितना बड़ा होता है उतना ही शालीन होता है इसका बखूबी एहसास कराया सर ने, फ़ोन रखने के साथ वो ये बोलना नहीं भूले की मै आपका नंबर अपने फ़ोन में सेव कर लेता हूँ, कभी दिल्ली आना हो तो जरुर मिलिए.

सच में दोस्तों बहुत मज़ा आया, इतना की फोन रखते ही मै ये खुशी छुपा नहीं पाया और फिर पूरी दास्तान अपने ट्रेनिंग में सुना डाली.

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