मेरा मानना हैकि रिस्ते बनाना, जोड़े रहना, उन्हें एहसास करना, जीना और एक क़ाबिल मुकाम पर ले आने की कोशिश करना किसी सोशल मीडिया के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टेक्निक, या चैटबोट से शुरू तो की जा सकती है लेकिन उसे जीने के लिए हमेशा हमें रिस्तों के बेसिक्स में जाना पड़ेगा, और हमारी जिंदगी में रिस्तों की पहली किश्त माँ के साये में मिली और माँ के प्यार को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दायरे में लाना तो क्या, सोचना भी एक गुनाह होगा, और यहीं से मेरा मानना हैकि रिस्तों को जितना आर्टिफिशियल रखा जाएगा और उसे बनाने और निभाने के लिए इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया जाएगा ये उतना ही कॉस्मेटिक होगा, लिहाज़ा उसकी बुनियाद उतनी ही हल्की और कमजोर होगी ।
हाँ ये चमकदार तो जरूर लगेंगे, बेहद अट्रेक्टिव भी होंगे, ओरिजिनल फील भी दे सकते हैं लेकिन दुनिया के सबसे क़ीमती कॉस्मेटिक के साथ भी सबसे बड़ी विडंबना ये हैकि उसे उतारकर या धोकर सोना ही पड़ता है ।
शायद, इसीलिए कहा जाता हैकि सिम्पलीसिटी कभी आउट ऑफ फैशन नही होती।
लिंक्डइन प्रोफेसनल्स की दुनिया मानी जाती है, लोग यहाँ अपने काम के बारे में चर्चा करते हुए पाए जाते हैं, लोग मकसदों के बीच अपने मकसद का प्रोफेशनल खोज रहे होते हैं ।मैंने लिंक्डइन को बदलते हुए देखा है, या यूँ कहें कि अपग्रेड होते हुए । हम सब यहाँ किसी न किसी मक़सद से होते हैं, किसी को बिजनेस, जॉब, फेम, ब्रांडिंग तो किसी को बस तारीफ़ चाहिए होती है, मक़सद होना कोई बुरी बात नही है, लेकिन हममे से बहुत लोग दुनिया को इसबात के लिए भी दिनभर कोसते पाए जाते हैंकि दुनिया मतलबी हो चुकी है लोग किसी के काम नही आते हैं, ख़ैर इसके बाद भी बेहतर लोग हर जगह हैं और रहेंगे, मक़सद बनेंगे और पूरे होते भी रहेंगे ।
ख़ैर ये भी देखने में लगता हैकि हम अपने आपको कॉमन नहीं समझना चाहते और जितना अन-कॉमन समझते जा रहे हैं हमारा कॉमन सेंस भी उतना ही अन-कॉमन होता जा रहा है ।
मामला रिस्तों का चल रहा था, मैंने देखा है लिंक्डइन पर या किसी भी नेटवर्किंग साइट्स पर सब कुछ आसान है, पहले जन्मदिन, सालगिरह, ख़ास मौकों का रिमाइंडर आता था बस, अब पहले से लिखे लिखाये ग्रीटिंग्स मेसेजेज भी आते हैं, हमें बस एक क्लिक करना होता है और बधाई संदेश अगले के इनबॉक्स में होते हैं ।
पूरे दिन साथ मे एनीवर्सरी मनाने वाले कपल अगर शाम को शोशल मीडिया पर एक दूसरे को विश ना करें तो पूरी सेलिब्रेशन खतरे में पड़ जाती है कई बार ।
रिस्तों को याद रखना और निभाना इतना आसान पहले कभी नहीं रहा, और पूरी क़ायनात ये बात जानती हैकि जो आसान या आम हो जाये वो अपना वजूद ख़तरे में कर देता है।
रिस्ते कोई कॉन्ट्रेक्ट नहीं हैं जिसे महज़ सिग्नेचर की दरकार होती हो, ये तो जाने कितना कुछ हैं, एहसास करने से लेकर एहसास कराने तक के सफऱ में हमें रिस्तों की परिभाषा को फिर से इनके बेसिक्स में जाकर खोजनी पड़ेगी, क्योंकि आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस से हम ख़ास दिनों को याद करके ख़ास बधाई तो दे सकते हैं लेकिन खास भी बन पाएंगे इसपर एक बहुत बड़ा सवाल है, क्योंकि जिसका ख़ुद का नाम आर्टिफिशियल हो उसकी बुनियाद पर और क्या उम्मीद कर सकते हैं, कहते हैंकि एक चोर भी ईमानदार साथी चाहता है ।
और रिस्ते तो ईमानदारी, सहजता, और सरलता के बुनियाद पर ही जोड़ें जाए तो टिकाऊ हो सकते हैं।
शुक्रिया,
प्रवीण कुमार राजभर