उसकी दाढ़ी पर सालों से कोई कैची या रेजर नहीं चली थी, लग रहा था जैसे तेज धुप या आग लगने से किसी पतझड़ की पत्तियां सिकुड़ के सुख गईं हों, उसके बालों की भी यही हालत थी, सर के बाल कर्ली हो चले थे, और धीरे धीरे लटें बनने लगी थी उसमें, मै अक्सर बचपन में जब किसी के कर्ली बाल देखता तो मन में सोचता था की मेरे बाल कर्ली क्यूँ नहीं हैं, मुझे बहुत पसंद थे कर्ली बाल उस समय लेकिन ये कोई नेचुरल तरीके के कर्ली बाल नहीं थे, इन बालों ने वर्षो से कोई सलून नहीं देखा था, इन्हें कभी किसी तेल की नमीं नहीं मिली थे, किसी कंघा ने इन्हें सवारने का काम नहीं किया था, ना ही शायद इन बालों से कोई शीशा रूबरू हुआ था, लेकिन वो मस्त था, बिलकुल मस्त, सर्दी का मौसम धीरे धीरे ख़त्म हो रहा था और लेकिन सुबह सुबह अभी भी उसका एहसास बराबर बना हुआ था, मै पार्क में रोज के तरह उस दिन भी जोगिंग कर रहा था, कभी तेज तेज चलता तो कभी हलके से दौड़ने लगता, बगल के पार्क में कुछ क्रिकेट खेलते हुए अपना बचपन और बचपना दोनों जी रहे थे, उनको देख कर साफ़ साफ़ लग रहा था कि वो मस्त है अपनी जिंदगी में, उन्हें मेरे जैसे जोगिंग के साथ साथ कितने चक्कर लग गये और कितनी कैलोरी बर्न हो गई, इसका हिसाब किताब रखने की कोई टेंशन नहीं थी, उन्हें ये भी फर्क नहीं पड़ रहा था कि वो कबसे खेल रहे हैं, वो पार्क के कितने चक्कर लग गए, जैसे किसी गुना गणित से फ्री थे, उनके हाथों में कोई स्मार्ट वाच नहीं थी, नतीजन हर सेकंड कितने स्टेप्स हुए ये देखने के बंधन से मुक्त थे वो, वो तो खेलते हुए एक दुसरे की मुस्कराहट देख सकते थे. इन्सान भी अजीब हो चला है, पार्क में जाता तो जरुर है लेकिन कैलरी बर्न की गिनती, स्मार्ट वाच की कैलकुलेशन, और फिटनेश ज्ञान में इतना खो जाता है की प्रकृति की गोद में जाकर भी अनाथ बना रहा रहता है |
मै हर चक्कर में उसे देखता जा रहा रहा था, वो दो दिन फटी शाल साल और चादर लपेटे हुए कभी किसी कोने बैठा मिलता तो कभी चलते हुए, लेकिन मस्त था, जैसे किसी से किसी भी तरह की शिकायत न हो, पार्क में टहलते हुए भी ठहलने वाले फैशन से दूर, मै मन ही मन उसके पागल होने पर उसे बिना बताये तरस खा रहा था, अच्छा, पागल होना भी अपने आप में एक अवस्था है न, सम्पूर्ण अवस्था, जो किसी शिकायत, उम्मीद, कॉम्पिटिशन, प्रॉफिट और लोस की दुनिया से बाहर हो जाती हो जैसे, वो बिलकुल वैसे ही लग रहा था मुझे .उसे देख के ऐसा लग रहा था जैसे कि वो भी हम पर उतना ही तरस खा रहा होगा जितना मै उस पर खा रहा था |
भैया गेंद पकड़ा दो, पीछे से कुछ बच्चों की आवाज़ एक साथ आई, साथ ही मेरे सामने से एक गेंद निकलते हुए बगल के झाड़ी में फंस गई थी, मेरे कानों में इयरफोन लगे थे, जाहिर है मै गाने सुनते हुए टहल रहा था लेकिन वाल्यूम इतना तेज नहीं था कि मैंने वो आवाज़ न सुनी हो. लेकिन इयरफोन का फायदा उठाते हुए मै आगे बढ़ गया, जैसे की मैंने कुछ सुना ही न हो, साथ ही मुझे ये भी एहसास हुआ कि मै इरिटेट होते हुए ये बुदबुदाया हो कि तुम्हारी गेंद देने के लिए पार्क में थोड़े आयें हैं, लेकिन पता नहीं क्यूंकि उसके बाद भी मै बच्चो को ये बताना चाह रहा था कि वो गेंद किधर गई है, इन्सान बड़ा हो जाये ठीक है, लेकिन अगर उसके अन्दर का बचपना मर जाये तो ये भी एक तरह की त्रासदी ही होती है.
मेरे ठीक पीछे वो शख्स था जिसको पिछले कुछ समय में मै कई बार पागल का सर्टिफिकेट दे चूका था, , इससे पहले की बच्चे उधर आते वो उठा और उस झाडी में घुस गया, शायद एक मिनट के बाद उसके हाथ में वो गेंद थी और उसने मुस्कराते हुए वो गेंद जोर से उन बच्चों के तरफ फेक दी, मै निशब्द था, समझ में नहीं आ रहा था कि क्या एक्सप्रेशन दूँ और किसे, बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, उनके पास एक दर्शक था जो उनके खेल को एन्जॉय कर रहा था, एक ऐसा दर्शक था जो अपने तरफ से ही सही लेकिन उस खेल का हिस्सा था, और मै उस पार्क में अकेले भाग रहा था अपने जोगिग सोंग्स, स्मार्ट वाच, केलेरी कैलकुलेशन, रिबोक के ट्रैकसूट और जूतों के साथ, और अजीब बात तो ये थी कि मै उसे पागल भी समझ रहा था |
(प्रवीण)