Friday, 23 March 2018


उसकी दाढ़ी पर सालों से कोई कैची या रेजर नहीं चली थी, लग रहा था जैसे तेज धुप या आग लगने से किसी पतझड़ की पत्तियां सिकुड़ के सुख गईं हों, उसके बालों की भी यही हालत थी, सर के बाल कर्ली हो चले थे, और धीरे धीरे लटें बनने लगी थी उसमें, मै अक्सर बचपन में जब किसी के कर्ली बाल देखता तो मन में सोचता था की मेरे बाल कर्ली क्यूँ नहीं हैं, मुझे बहुत पसंद थे कर्ली बाल उस समय लेकिन ये कोई नेचुरल तरीके के कर्ली बाल नहीं थे, इन बालों ने वर्षो से कोई सलून नहीं देखा था, इन्हें कभी किसी तेल की नमीं नहीं मिली थे, किसी कंघा ने इन्हें सवारने का काम नहीं किया था, ना ही शायद इन बालों से कोई शीशा रूबरू हुआ था, लेकिन वो मस्त था, बिलकुल मस्त, सर्दी का मौसम धीरे धीरे ख़त्म हो रहा था और लेकिन सुबह सुबह अभी भी उसका एहसास बराबर बना हुआ था, मै पार्क में रोज के तरह उस दिन भी जोगिंग कर रहा था, कभी तेज तेज चलता तो कभी हलके से दौड़ने लगता, बगल के पार्क में कुछ क्रिकेट खेलते हुए अपना बचपन और बचपना दोनों जी रहे थे, उनको देख कर साफ़ साफ़ लग रहा था कि वो मस्त है अपनी जिंदगी में, उन्हें मेरे जैसे जोगिंग के साथ साथ कितने चक्कर लग गये और कितनी कैलोरी बर्न हो गई, इसका हिसाब किताब रखने की कोई टेंशन नहीं थी, उन्हें ये भी फर्क नहीं पड़ रहा था कि वो कबसे खेल रहे हैं, वो पार्क के कितने चक्कर लग गए, जैसे किसी गुना गणित से फ्री थे, उनके हाथों में कोई स्मार्ट वाच नहीं थी, नतीजन हर सेकंड कितने स्टेप्स हुए ये देखने के बंधन से मुक्त थे वो, वो तो खेलते हुए एक दुसरे की मुस्कराहट देख सकते थे. इन्सान भी अजीब हो चला है, पार्क में जाता तो जरुर है लेकिन कैलरी बर्न की गिनती, स्मार्ट वाच की कैलकुलेशन, और फिटनेश ज्ञान में इतना खो जाता है की प्रकृति की गोद में जाकर भी अनाथ बना रहा रहता है |

मै हर चक्कर में उसे देखता जा रहा रहा था, वो दो दिन फटी शाल साल और चादर लपेटे हुए कभी किसी कोने बैठा मिलता तो कभी चलते हुए, लेकिन मस्त था, जैसे किसी से किसी भी तरह की शिकायत न हो, पार्क में टहलते हुए भी ठहलने वाले फैशन से दूर, मै मन ही मन उसके पागल होने पर उसे बिना बताये तरस खा रहा था, अच्छा, पागल होना भी अपने आप में एक अवस्था है न, सम्पूर्ण अवस्था, जो किसी शिकायत, उम्मीद, कॉम्पिटिशन, प्रॉफिट और लोस की दुनिया से बाहर हो जाती हो जैसे, वो बिलकुल वैसे ही लग रहा था मुझे .उसे देख के ऐसा लग रहा था जैसे कि वो भी हम पर उतना ही तरस खा रहा होगा जितना मै उस पर खा रहा था |

भैया गेंद पकड़ा दो, पीछे से कुछ बच्चों की आवाज़ एक साथ आई, साथ ही मेरे सामने से एक गेंद निकलते हुए बगल के झाड़ी में फंस गई थी, मेरे कानों में इयरफोन लगे थे, जाहिर है मै गाने सुनते हुए टहल रहा था लेकिन वाल्यूम इतना तेज नहीं था कि मैंने वो आवाज़ न सुनी हो. लेकिन इयरफोन का फायदा उठाते हुए मै आगे बढ़ गया, जैसे की मैंने कुछ सुना ही न हो, साथ ही मुझे ये भी एहसास हुआ कि मै इरिटेट होते हुए ये बुदबुदाया हो कि तुम्हारी गेंद देने के लिए पार्क में थोड़े आयें हैं, लेकिन पता नहीं क्यूंकि उसके बाद भी मै बच्चो को ये बताना चाह रहा था कि वो गेंद किधर गई है, इन्सान बड़ा हो जाये ठीक है, लेकिन अगर उसके अन्दर का बचपना मर जाये तो ये भी एक तरह की त्रासदी ही होती है.
मेरे ठीक पीछे वो शख्स था जिसको पिछले कुछ समय में मै कई बार पागल का सर्टिफिकेट दे चूका था, , इससे पहले की बच्चे उधर आते वो उठा और उस झाडी में घुस गया, शायद एक मिनट के बाद उसके हाथ में वो गेंद थी और उसने मुस्कराते हुए वो गेंद जोर से उन बच्चों के तरफ फेक दी, मै निशब्द था, समझ में नहीं आ रहा था कि क्या एक्सप्रेशन दूँ और किसे, बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, उनके पास एक दर्शक था जो उनके खेल को एन्जॉय कर रहा था, एक ऐसा दर्शक था जो अपने तरफ से ही सही लेकिन उस खेल का हिस्सा था, और मै उस पार्क में अकेले भाग रहा था अपने जोगिग सोंग्स, स्मार्ट वाच, केलेरी कैलकुलेशन, रिबोक के ट्रैकसूट और जूतों के साथ, और अजीब बात तो ये थी कि मै उसे पागल भी समझ रहा था |


(प्रवीण)

Thursday, 22 March 2018





ये दुनिया एक क्रिकेट ग्राउंड की तरह है, और जिन्दगी उस दर्शक की तरह जो स्टेडियम में बैठ कर निहार रही हो हमें, कभी तालियाँ बजाती, चीयर करती हुई, कभी मोटीवेट करते हुए, कभी मिस हुए शॉट को देखकर कचोटते हुए, कभी गुस्से में कोसते हुए तो कभी हमारे रंग में ढलकर हमें साथ देते हुए, लेकिन हर बार ये जिंदगी यही कहती हैं कि, कोई बात नहीं रिजल्ट जो भी हो दुबारा खेलने का मौका हमेशा हमारे साथ है और जहाँ दुबारा खेलने का मौका है, वहां पहले से बेहतर परफॉर्म करने के चांसेज भी जरुर मिलते हैं  |

जिंदगी जैसे कभी किसी के साथ कुछ गलत नहीं करती, हाँ कई बार लगता है कि टॉस जीतने वाला ज्यादा सौभाग्यशाली है, लेकिन मौका तो दूसरी टीम को भी मिलता है न, क्यूँ की अगर दूसरी टीम को मौका नहीं मिला तो पहले वाले के टॉस जीतने का  कोई वजूद नहीं रहता, बिलकुल हमारे खट्टे मीठे दिनों की तरह, अगर सब कुछ ठीक ही हो रहा हो तो फिर उसका वजूद ख़त्म हो जाता है या फिर पहले जैसे ख़ुशी नहीं मिलती, बिलकुल उस चुटकुले की तरह जिसे जितनी बार सुनो उसका मज़ा कम होता जाता है |

मैंने कई बार जिंदगी की जीभर के कोसा है, जीभर के गालियाँ भी दी हैं, जैसे कोई प्रोमिस तोड़ दिया हो जिंदगी ने मुझसे, लेकिन शांत होकर सोचा तो कभी कुछ ऐसा वाकया मिला ही नहीं जहाँ पर जिंदगी ने मुझसे कोई वादा किया हो, और जब कोई वादा ही न हो, तो वादे का टूटना कैसा , फिर मुझे एहसास हुआ कि ये तो एकतरफा था सब कुछ, मैंने ही टॉस उझाला हो मैंने ही टॉस जीता हो, मैंने ही खेला और जीतने की कोशिश भी की और हारने के बाद जीभर के कोसा हो, लेकिन ऐसा मैच सच में होता कहाँ है भला, सपनो में भी तो नहीं होता है ऐसा कुछ, शायद दुनिया में जैसे कुछ भी अकेले नहीं होता है, हर किसी के साथ किसी न किसी का, कोई न कोई वजूद, जरुर जुड़ा होता है, कई बार दिखता है तो कई बार नहीं दीखता, वैसे बात तो ये भी है न कि सपने भी देखने के लिए महज आखें नहीं चाहिए होती हैं, उन आखों में नींद भी तो बहुत जरुरी होती है और शायद ऐसे नींद वाले सपने टिकाऊ भी तो नहीं होते, नींद खुलने पर कभी याद आते हैं तो कभी भूल जाते हैं |

कई बार मुझे जिंदगी बिलकुल उस बैटिंग पारी की तरह लगती है जो सलामी जोड़ी की तरह आपके साथ खेलने आती है, साथ देती है, और हम खेलते रहते हैं और रन बनता रहता है, लेकिन ऐसा होता ही कहाँ है किसी खेल में, जिसमे सलामी जोड़ी टूटती न हो, लेकिन साथ ही जिंदगी फिर से एक नए रूप में नए बल्लेबाज बनके आ जाती है, हम फिर खेलना शुरू करते हैं, खेलते जाते हैं रन बनाते जाते हैं, कई बार आउट भी हो जाते हैं लेकिन ये बल्लेबाज के आने जाने का सिलसिला चलता ही रहता है, जैसे जिंदगी कहना चाहती हो, कि तुम तो अपने आखिरी ओवर तक टिके रहने की कोशिश करो मै साथ देती रहूंगी और तब तक साथ देती रहूंगी जब तक तुम खेलते रहोगे, मै तुम्हारे साथ ही हूँ एक वादे के साथ जो उस बैटिंग के आखिरी जोड़ी के साथ होता है कि आखिरी जोड़ी में आउट कोई भी हो दूसरा बल्लेबाज भी उसके साथ ही लौट जाता है पवेलियन उसका साथ देते हुए |

हाँ जिंदगी कभी अकेला नहीं छोडती बिलकुल उस खेल के तरह जिसमें कम से कम दो लोग तो चाहिए ही होते हैं, जैसे मै और मेरी जिंदगी |

Wednesday, 21 March 2018






उन दिनों ताज़ा ताज़ा पेपर पढने का शौक हुआ था, पेपर पढना इसलिए भी मुमकिन हो पा रहा था क्यूंकि BA करने के लिए जिस कॉलेज में मैंने एडमिशन लिया था वहां जाने के लिए मुझे ट्रेन लेनी पड़ती थी, और वो ट्रेन के आने का वक्त सुबह 8 बजे होता था, मै अक्सर समय पर स्टेशन पहुच जाता था, हालाकिं ऐसा बहुत कम होता था की ट्रेन कभी टाइम पर आती हो लेकिन महीने में कभी कभार टाइम से आने पर कॉलेज का छुट जाता था और फिर उसके बाद एक ही विकल्प होता था साइकिल से कम से कम 20 किलोमीटर जाना, जो बिलकुल पसंद नहीं था|
खैर, ट्रेन अक्सर लेट ही आती थी, इस पुरे इंतजार में जो वक्त मिलता था वो न्यूज़ पेपर पढने में लग जाता था |
ठीक से याद नहीं, लेकिन शायद वो बुधवार का दैनिक जागरण रहा होगा, जोश नाम का एक साप्ताहिक आता था, जिसमे शिक्षा और नौकरी से जुडी हुई जानकारियां होती थी, उसमे लिखा था की अगले हफ्ते टीचर्स डे है और आप अपने टीचर के लिए क्या क्या गिफ्ट ले सकते हैं पर कई सारे ओप्संस थे|
कभी मनाया नहीं था टीचर्स डे, मैंने तो साल के पहले दिन पर दिए जाने वाले ग्रीटिंग्स कार्ड्स को भी दुकानों पर ही सजा देखा था, ना किसी को दिया कभी, ना किसी से मिला कभी |
समस्या बस इस बात की नहीं थी कि ग्रीटिंग्स कार्ड्स जैसे किसी मौके को मानना नहीं आता था, बल्कि असली समस्या ये थी कि कॉपी किताबों को खरीदने के बाद जो थोड़ी बहुत पैसे बचते थे, वे कभी इतने नहीं होते थे कि उनसे ये इस तरह का कुछ किया जा सके.  लेकिन ये वाला टीचर्स डे थोडा सा अलग लगा था, मुझे उस बार, ये टीचर्स डे का कमाल नहीं था बल्कि ये तो पोलिटिकल साइंस वाले सर का इन्फ्लुएंस था. कॉलेज के शुरुवाती दिनों के कुछ क्लासेस में ही वो मुझे अलग दिखे थे, शायद वो उनकी एनर्जी, मिलनसार व्यतित्व, उनके पढ़ाने और समझाने के आसान तरीके, या यूँ कहें की पढ़ाने के प्रति उनका पैशन ने मुझे उनका मुरीद बनाया था |

लोगों से मिलने और बात करने का फितूर हमेशा से साथ रहा मेरे. सर जखनिया स्टेशन से कुछ दूर एक कमरा किराए पर लेकर रहते थे, जाने कैसे शुरू किया था बात करना याद नहीं है, हाँ लेकिन इतना पता है की वो कहाँ रहते हैं क्यूंकि कई बार उन्हें जाते हुए देखा था, कई बार उधर कुछ चक्कर लगा भी चूका था, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई कि दरवाजा खटखटा कर अन्दर आने की परमिशन ले सकूँ | सुबह जल्दी आ जाता था, क्लासेस 11 बजे से शुरू होती थीं तो काफी वक्त होता था मेरे पास, उस दिन जाने कैसे हिम्मत आई और मैंने नॉक कर दिया था दरवाजा, सर आये, सुबह सुबह तैयार हो रहे थे शायद कॉलेज के लिए,
अरे प्रवीण आओ आओ कैसे आना हुआ!
मेरे पास कुछ खास कहने को नहीं था, न ही बहुत हिम्मत हुई थी , बस मिलने की इच्छा जाहिर कर दी, उन्होंने मुझे अन्दर बुलाया, बैठने के लिए कहा, अन्दर ढेर सारी किताबें थी, स्टडी टेबल पर रखे हुए बड़े सारे नोट्स, कुछ वो नोट्स भी थे जो हमें पढाये गए थे, मतलब सर खुद बड़ी तैयारी के साथ क्लास में आते थे, और यही बात भी थी उनके इम्प्रेसिव होने की | पारलेजी का छोटा सा पैकेट खोलकर मेरे तरफ बढ़ाते हुए हुए कहा, लो पानी पियो, शायद बेहतर लोगों से मिलने की वो मेरी सबसे कीमती प्यास थी, जो बुझ रही थी उस दिन | उस दिन सर तैयार होते रहे. मुझसे बात करते रहे, और मै प्राउड फील करता रहा अपने ऊपर, अपने उस दिन के हिम्मत पर और उनकी सादगी पर | मै उस दिन सर के साथ ही कॉलेज आया था, उनके स्कूटर पर बैठकर, कमाल की फीलिंग थी वो, शायद पहली बार बैठा था स्कूटर पर मै उसदिन, दिमाग में इतनी बाते चल रही थी कि उनसे कुछ और बात नहीं कर पाया था आगे, हाँ इतना ध्यान जरुर दिया की किसने किसने मुझे उनके साथ स्कूटर पर देखा था, आखिरकार ये बड़ी बात न सिर्फ मेरे लिए थी बल्कि मेरे जानने वाले दोस्तों के लिए भी थी |

खैर टीचर्स डे के आते आते मै कई बार जा चुका था सर के पास, सोचा कुछ लेते हैं, पेपर में लिखे सारे ओप्संस मेरे बजट से बाहर थे, तो उनपर सोचना बेमानी था. क्या हो सकता है एक गुरु के लिए, किसी से पूछ भी नहीं सकता था संकोच के कारण, खैर सोचा एक डायरी और पेन लेते हैं | शायद कुल बाईस रूपये थे मेरे पास जाने कबके संजोयी पॉकेटमनी थी वो, मैंने एक छोटी सी शॉप से 15 रुपये की डायरी और 7 रुपये की कलम खरीदी थी, गिफ्ट पैक फ्री में हो गया था और उसदिन सुबह सुबह मै पहुच गया सर के कमरे पर टीचर्स डे मनाने के लिए |

सर का पैर छुआ और दबी आवाज़ में वो गिफ्ट पैक देते हुए बोला-सर आज टीचर्स डे है न, तो ले लिया ये, सर ने वो पैकेट लिया, अरे इसकी क्या जरुरत कहते हुए टेबल पर रख दिया था, पारले जी उस दिन भी मिला था मुझे, और उनके साथ ही आया था मै कॉलेज फिर से |
ये वाकया मै जब भी सोचता हूँ तो मामला बस टीचर्स डे  का नहीं लगता मुझे, मुझे लगता है उस शालीनता और सहजता का जब पहली बार मैंने दरवाजा खटखटाया था और सर ने मुझे अन्दर आने के लिए बोला, वो हिम्मत आज मुझे देश के किसी भी शख्शियत को कॉल करने और मिलने में हिचकने नही देती, उनका सहज व्यवहार मुझे हमेशा सजग रखता है की आज मै जो भी हूँ उसमें सहज होना मेरी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, उनका अप्रोचेबल होना मुझे समझाता है की जुड़े रहिये और इतना स्पेस दीजिये की लोग आपसे जुड़े रहें | वो उनके द्वारा मेरी कविताओ को पहली बार पब्लिश करवाना मुझे हिंदी साहित्य अकादेमी, आल इंडिया रेडिओ और देश के तमाम न्यूज़ पेपर्स तक ले लगा | वो स्कूटर पर पहली बार बैठना मेरे लिए लक्ज़री था, लेकिन उनके साथ बैठना ये बताता है असली लक्ज़री आपका ज्ञान और आपके व्यवहार  में वो सहजता है जो किसी को आपके साथ छोटा फील नहीं कराने देती |


शुक्रिया डॉ धर्मेन्द्र प्रताप श्रीवास्तव सर जाने कितने अनकही बातो के लिए |

Sunday, 18 March 2018




जाने कब बड़े हो गए, हम सभी की जिंदगी में ये एहसास अक्सर आता रहता है और खास बात ये हैकि पता ही नहीं चलता की कब हो गया इतना सब कुछ, जाने कब, हाफ पैंट से फुल पैंट तक आ गये, पापा के साथ बाल कटवाने के लिए जाने वाला बच्चा, जाने कब सैलून में चिपकाये हुए, तमाम फ़िल्मी हीरोज के फोटो वाली हेयर स्टाइल को कॉपी करने लगता, जाने कब स्कूल बैग में रखी किताबें कम होने लगी और उनकी जगह कॉलेज की चंद किताबों ने और नोटबुक्स ने ले ली,
जाने कब चंद्रकांता और शक्तिमान से तेरे नाम और आशिकी फिल्मों तक पहुच गए |
जाने कब आकाश में सप्तर्षि मंडल और ध्रुव तारे को खोजते हुए, चाँद और चांदनी को समेटे हुई इश्क और माशूका वाली शायरियां समझ में आने लगी,

जाने कब माँ के बाज़ार में खो जाओगेसे लेकर बाजार से ये सारे सामान लेते आनावाला सफ़र पूरा कर लिया, जाने कब छोटी छोटी नोक झोंक पर भाई के हाथों थप्पड़ खाने वाला वो बच्चा, जो तब तक रोता रहता था जब तक पापा या मम्मी न सुन लें, से लेकर, बच्चे नहीं रहे अब तुम, तुम्हारे आखों में आंसू अच्छे नहीं लगतेतक आ गए. जाने कब रात में सोते हुए चारपाई से निचे गिर जाने वाला वाला बच्चा, ये समझने लगता है की चारपाई के किस तरफ बैठना चाहिए, जब पहले से ही चारपाई पर बड़े बुजुर्ग बैठों हों, जाने कब मेले में पापा का हाथ पकड़कर चलने वाला वो बच्चा जो हर खिलोने को खरीदने की जिद करता था, से लेकर अरे खिलौनों में क्यूँ पैसे बर्बाद करना,  थोड़ी देर में तो टूट जाते हैं ये, तक आ जाता है |

जाने कब वो अपनी कॉपी और किताबों को खरीदने के लिए मिले पैसों में से कुछ पैसा बचाकर कॉस्को की क्रकेट बाल खरीदने वाला बच्चा, अपनी पढाई पूरी करके गाँव के छोटे से रेलवे स्टेशन पर जाने कितने सपनों के साथ दिल्ली के लिए टिकेट खरीद रहा होता है |

जाने कब, दिनभर में चार बार माँ के किचेन से खाने वाला बच्चा सुबह शाम दो वक्त खाकर जीने लगता है और जाने कब वो चाय में रोटी और बिस्किट भिगाकर जीभर के पेट भरने वाला बच्च्चा अब चाय की तलब का शिकार हो जाता है | जाने कब वो बच्चा, जो घर में अरहर की दाल, गोभी, चावल को नापसंद करता था, या  अपनी शर्तों पर खाता था, आज वो दाल चावल को लगातार हफ़्तों तक खा लेता है क्यूंकि उसे और कुछ बनाना नहीं आता,  जाने कब वो स्कूल से निकलने के बाद दौड़ते हुए अपनी साईकिल निकालकर सबसे तेज रफ़्तार से चलाने वाला बच्चा शहर आकर दौड़कर बसें पकड़ना शुरू कर देता है | बाहर किसी का दिया हुआ मत खाना, ये सुनकर घर से निकला हुआ वो बच्चा जाने कब, लंच के वक्त दोस्तों के बीच एक टिफिन से रोटी, तो दुसरे टिफिन से सब्जी खाने लग जाता है |

जाने कब वो अपने पॉकेट में रखे हुए अपने हर पैसे का हिसाब रखने लगता है जिसने शायद ही कभी घर में पैसों को इतने कीमती नज़रों से देखा हो | वो बच्चा जो पास में पैसे आते ही सोमोसे, जलेबी, और चाट की दुकानों पर मिलता था आज सेलेरी आने से पहले ही अपनी सेविंग प्लान करके बैठा होता है, वो जाने कब इतना बड़ा हो जाता है की सड़क पर हो रहे लड़ाई तकरार से मुह मोड़कर आगे बढ़ जाता है जो बचपन में उस हर सीन पर तालियाँ बजाता था जिसमें हीरो गुंडों की पिटाई करता था |

रविवार वाली छुट्टियों के दिन बिना खाए पिए, सुबह से लेकर शाम तक क्रिकेट के बल्ले के साथ बिताने वाला वो बच्चा जाने कब रविवार को सुबह सुबह अपने कपडे धोकर फिर से काम पर निकल जाता है क्यूँ की उसके बॉस ने उससे कहा है की इंसेंटिव कमाना है तो ज्यादा काम करना पड़ेगा | जाने कब वो बच्चा जो कई बार पढाई से बचने के लिए, या काम से बचने के थका होने का बहाना बना लेता था आज वो थकना मना हैको अपना आदर्श वाक्य बना लेता है |


हाँ, जिंदगी में हम इतने मशगुल हो जाते हैं की जाने कब इतना सब कुछ हो जाता है पता ही नहीं चलता, बिलकुल वैसे ही जैसे खबर भी नहीं लगती और वो बच्चा इतना बड़ा हो जाता की बचपन की बातें याद करके कहने लगता है, कितने हसीन थे वो दिन |   

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