Wednesday, 10 July 2019



करीब 2 साल हो गये, मुझे स्टार्टअप की दुनिया में मुझे अपने आपको देखते हुए, और तबसे लगभग हर दिन एक उम्मीद और डर के साथ जागता हूँ. उम्मीद कुछ बेहतर करने की, उम्मीद उस दिन को सबसे यादगार दिन बनाने की, उम्मीद अपने सपने के और करीब जाने की, उम्मीद, इतनी उम्मीद रखने की कि कल भी उम्मीद बची रहे.

डर, अपने सपने को वो शेप ना दे पाने कि जो देखता हूँ हर दिन, डर उम्मीदों को पूरा न कर पाने कि जो मैंने देखें हैं और जो बाकि लोगों ने मेरे वजह से देखें हैं, डर उस दुनिया को न बना पाने कि जिसकी ख्वाहिश जाने कबसे पाल रखी है, डर बैंक करप्ट हो जाने की, डर इस दुनिया में बिना कुछ इम्पैक्ट क्रियेट किये चले जाने की, डर कुछ समाज में कंट्रीब्यूट न कर पाने की.

लेकिन, जैसे जैसे दिन बढ़ता जाता हैं, काम शुरू करते हैं, डर कम होने लगता है और उम्मीद बढती जाती हैं, और शायद डर पर हावी होने या कब्ज़ा करने का इससे बेहतर कोई रास्ता नहीं लगता मुझे.

इस दुनिया में मैंने अभी तक जो भी पाया है उसमें डर हमेशा से था, लेकिन लेकिन कभी उमीद को हारने नहीं दी, क्यूंकि जिस दिन उम्मीद हार जाती है कुछ बचता नहीं है करने को, और काम करने से ही उम्मीद को ताकत मिलती रहती है, बिना काम और एक्सिक्युशन के तो सब खयाली पुलाव ही है और ख्याली पुलाव की सबसे अच्छी बात ये हैकि इसका टेस्ट कभी बुरा नहीं हॉट और बुरी बात हैकि इससे पेट नहीं भरता कभी.

मेरा मानना हैकि अगर सफलता बहुत आसान होती तो दुनिया का हर आदमी सफल होता, तो जब रिजल्ट्स ना आये तो ईमानदारी के साथ प्रयास डबल कर देने चाहिए, इससे अलावा और कोई चारा नहीं है सफल होने का.


Saturday, 11 May 2019


आपके जाने के बाद बहुत बार लिखने का मन किया आपके बारे में, लेकिन हर बार उलझ जाता हूँकि कौन सा इंसिडेंट लिखूं, किसको छोडूं, जितनी बार भी लिखने बैठा, मन में इतनी बातें उठने लगती हैंकि उन्ही में खो जाता हूँ, और फिर शब्दों से दूर हटकर बैठ जाता हूँ, सोचता हूँ, महसूस करता हूँ, कुछ नाराजगी दिखाता हूँ, कुछ मुस्कराता हूँ और आखिर में ना चाहते हुए भी थोड़ा रोकर सिमटकर सो जाता हूँ, जब से होश आया तो आपको अक्सर दवाइयों के साथ पाया, आप बहुत बार बीमार हुए, हमारे लिए, रिश्तेदारों के लिए, गाँव और मुहल्ले वालों के लिए, लेकिन ये बात कभी आपने हमें नही जाहिर होने दी कि आप बीमार हैं, हमने तो कई बार बता दिया और जता भी दिया, लेकिन ये बात आपने क्यों नही जाहिर होने दी कि आप भी बीमार हैं जब हमें आपकी जरूरत थी, हमेशा वो सब करते रहे जो एक माँ करती है, ये हुनर कहाँ से लाये थे आप, बीमार होकर भी बीमार न होना।
आपको पता है, जब उस दिन आप बेड पर कई दिनों से पड़े थे, आपका वजन 75 किलो से 35 का हो गया था, बॉडी में एक लंबी ड्रेन पड़ी थी महीनों से, और मैं दोपहर में अचानक ऑफिस से घर आ गया था, लंच करने लगा था, शायद आपने पापा को बोला था कि मुझे दही दे दें फ्रिज से निकाल कर, लेकिन आपकी कमजोर आवाज़ दब गई थी दूसरे कमरे में पंखों के शोर के बीच, आपको पता था कि दही मेरी फेवरेट है, और मुझे पता नही थी कि घर मे है अभी, तो आप खुद उठकर ले आये थे और मैं चाहकर भी आपको मना नही कर पाया था, मुझे आपका उठना और खुद चलना अच्छा लगा था, लेकिन बहुत दुख हुआ था उस दिन, कैसे कर लेते थे आप वो सब, कीमो के दर्द से पूरे दिन रह गए थे और मुझे रात के 11 बजे तक नही बताया कि आप दर्द में हैं बस इसलिए कि मैं एक खास में मीटिंग में जा रहा हूँ ये बोलकर गया था, आपको पता है उस दिन मुझे खास शब्द पर बहुत गुस्सा आया था।
मदर्स डे का तो नही पता, कि मैं कभी मना भी पाया जिंदगी में, लेकिन आपने बच्चों का डे ताउम्र बहुत ही मुकम्मल तरीके से मनाया।
ढेर सारी बातें करनी है आपसे, लेकिन शर्त बस ये हैकि आपकी गोद में सोकर करनी है।

Tuesday, 7 May 2019



उम्मीदों के साथ सबसे बुरी और अच्छी बात ये हैकि इसका ग्राफ कभी नीचे नहीं जाता, समय दर समय ये ऊपर ही बढ़ता जाता है, सोशल मिडिया ने पब्लिशिटी का सारे दायरे तोड़ दिए हैं, बातें जो पहले सामान्य होती थी आज पल भर में असामान्य हो जाती हैं, जो पहले आसानी से इग्नोर हो जाती थीं आज उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है, और कब आपके ज़ेहन का हिस्सा हो जाती हैं पता भी नहीं चलता. पिछले कई दिनों से फेसबुक पर लगातार टॉप बच्चों के फ़ोटोज, उनके मार्क्स और उनकी तारीफें चल रहीं हैं, पेरेंट्स बच्चों के साथ अपनी फ़ोटोज डालकर जनता से आशीर्वाद मांग रहे हैं और जनता भी खूब आशीर्वाद दे रही है. साथ ही कई ये भी लिखते हैं कि मै तो अपने टाइम में इसका आधे मार्क्स भी नहीं ले पाया था, या जितने मार्क्स इसके आयें हैं उतने तो हमारे दशवीं और बारहवीं मिलाकर नहीं थे. खैर होना भी चाहिए जो बात काबिलेतारीफ हुई है, उसकी तारीफ, जायज और जरुरी भी है.
पर सबसे अजीब ये लगता हैकि मैंने कहीं कोई ऐसी पोस्ट नहीं देखी, जिसमें किसी पैरेंट से अपने बच्चे को महज पास होने कि बधाई दी हो, और बोला हो बेटा कोई बात नहीं मै भी अपने टाइम पर पास ही हुआ था, लेकिन आज जिंदगी के इम्तेहान में जीना आता है मुझे, किसी पिता ने ये नहीं लिखा कि क्या हुआ तुम मिडिया कवरेज में नहीं आये तो क्या हुआ और भी बहुत मौके आयेंगे जब मीडिया कवर करने आ सकती है तुम्हारे पास, अभी तो बस सुरुवात है. मेरे फेसबुक के फ्रेंड पूरी हो चुकी है यानि पांच हजार के बाद करीब 900 से ज्यादा फ्रेंड रिक्वेस्ट मै एक्सेप्ट नहीं कर पाया हूँ तो क्या इनमें से किसी के घर का बच्चा फेल या कम अंकों से पास नहीं हुआ होगा? ऐसा मानना तो गलत है, यानि अगर हुआ है तो एक दो पोस्ट तो बनती थी न.
करीब 13 साल हो गए मुझसे किसी ने मार्क्स और प्रतिशत नहीं पूछा, 44% हाई स्कूल में, बारहवीं 51% और BA 49% मुझे याद है, दशवीं के रिजल्ट के दिन पापा से ठीक से बात नहीं हो पाई थी, खुश नहीं थे वो, और कहीं न कहीं मै भी. उम्मीद नहीं थी कि थर्ड डिविजन पास हूँगा, बचपन में जैसे कि हर घर में होता है मुझे भी मोहल्ले के अच्छे और पढ़ाकू बच्चों के लिए ताने मारे गए, कि वो तो 3 बजे सुबह जागकर पढता है, इनकी तो नींद ही नहीं खुलती. थर्ड डिविजन पास होने के बाद सब कुछ सही लगा था पापा पास हो गए थे और मै फेल, लेकिन कुल मिलाकर मै उस दिन अपने ही घर, परिवार और गाँव में बहुत अकेला और टुटा हुआ था, हाथ में क्रिकेट का बल्ला नहीं लिया कई दिनों तक, टीवी देखने नहीं गया, क्युकी ये सब कुछ करने से रोका गया था मुझे अच्छे मार्क्स के लिए और अब हिम्मत नही बची थी, बचपन में अकेलापन और डिप्रेशन ज्यादा खतरनाक होता है, अचानक करियर ख़तम होने जैसे फीलिंग आने लगी थी, जब करियर कि स्पेल्लिग़ तक याद नहीं थी. खैर घर कि पंचायत बैठी और मुझे फिर से दशवीं एटेम्पट करने का प्रेशर दिया गया क्यूंकि जो बाकि लोग थर्ड डिविजन पास हुए थे सब यही कर रहे थे मेरिट के चक्कर में. खैर उस वक्त मेरे नाना जी ने मुझे सपोर्ट किया था.
खैर ये कहानी लम्बी है, लेकिन आज जिंदगी के इस पड़ाव में हडप्पा मोहनजोदारो की खुदाई कब हुई थी, वो डेट जो बोर्ड एग्जाम के लिए बड़ी मुश्किल से रटी थी, काम नहीं आती है, बहुत उठा पटक देखे लाइफ में मार्क्स का ख्याल नहीं आया कभी, आज भी 76 का सामान खरीदने पर 100 देने के बाद खुल्ला कितने का मिलेगा समझ में नहीं आता तुरंत लेकिन लाइफ मस्त है.
आज जब बड़े बजे मंचों से, सफल स्टार्टअप के फाउंडर्स को कॉलेज ड्राप आउट बोलते सुनता हूँ तो समझ में आता हैकि जिंदगी महज़ मार्स्ह से नहीं चलती, न ही सफल होना यहाँ इस पर डिपेंड करता है. कई बार कोटा जैसे शहरों से ख़बरें आती हैंकि फलां बच्चे ने आत्महत्या कर ली, क्यूंकि वो प्रेशर में आ गया था तो डर लगता हैकि ये आज का पोस्ट कहीं उसके लिए प्रेशर तो क्रिएट नहीं करेगा ना, डर लगता हैकि जब फेल हुए या कम अंकों वाले बच्चे इन पोस्टों को देखते होंगे, तो कहीं हीन भावना का शिकार तो नहीं हो रहे होंगे, क्या उनमें फिर से उठने और लड़ने का मन करता होगा, कहीं उनका बचपन इन्ही लाइक्स और कमेन्ट के चक्कर में ना मर जाए, सोचता हूँ ये इनमें से अधिकतर बच्चे जब किसी न किसी अफेयर में आयेंगे और उसमें से कईयों का दिल टूटेगा, जो कि लाज़िमी है, तो इनमे से कोई दिल टूटने के बाद जिंदगी तोड़ने जैसी बात तो नहीं सोचेगा, उसे उस वक्त जिंदगी से लड़ना तो आयेगा न, कई बार सोचता हूँ जिन्होंने आज टॉप किया है या बेस्ट आयें हैं, कहीं न कहीं कभी कुछ कम मार्क्स ले आये तो कहीं डिप्रेशन में न चले जाएँ, क्युकी अगर परफॉरमेंस प्रेशर नाम की कोई चीज नहीं होती तो तेंदुलकर जैसे महान बल्लेबाज को अपने एक सौंवा शतक के लिए 34 पारियों और करीब एक साल का वक्त नहीं लगता.
डिअर पेरेंट्स याद रखिये, उम्मीदों के साथ सबसे बुरी और अच्छी बात ये हैकि इसका ग्राफ कभी नीचे नहीं जाता, खूब तारीफ कीजिये, अपने टाइम के मार्क्स की तुलना कीजिये, बस उसे ये भी सिखाइए कि जितने अच्छे आप बेटे बन पायें हैं अपने माँ बाप के लिए, ये भी बनें, हमें देश में बढ़ते वृद्धा आश्रमों से बहुत डर लगता है. और साथ में उन्हें ये भी बताइये कि बेटा, अगर इससे कभी कब भी मार्क्स आये तो भी हम तुम्हारे बारे में पोस्ट करके तुम्हारा नाम करेंगे, तुम तो बस जीना सीखो, लड़ना सीखो, आगे बढ़ना सीखो. 

आखिर में नाराजगी बस उन लोगों से हैं जिनके बच्चों ने कुछ खास नहीं किया और फेसबुक पर नहीं पोस्ट हो पाए

Sunday, 24 February 2019


मेरा मानना हैकि रिस्ते बनाना, जोड़े रहना, उन्हें एहसास करना, जीना और एक क़ाबिल मुकाम पर ले आने की कोशिश करना किसी सोशल मीडिया के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टेक्निक, या चैटबोट से शुरू तो की जा सकती है लेकिन उसे जीने के लिए हमेशा हमें रिस्तों के बेसिक्स में जाना पड़ेगा, और हमारी जिंदगी में रिस्तों की पहली किश्त माँ के साये में मिली और माँ के प्यार को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दायरे में लाना तो क्या, सोचना भी एक गुनाह होगा, और यहीं से मेरा मानना हैकि रिस्तों को जितना आर्टिफिशियल रखा जाएगा और उसे बनाने और निभाने के लिए इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया जाएगा ये उतना ही कॉस्मेटिक होगा, लिहाज़ा उसकी बुनियाद उतनी ही हल्की और कमजोर होगी । 
हाँ ये चमकदार तो जरूर लगेंगे, बेहद अट्रेक्टिव भी होंगे, ओरिजिनल फील भी दे सकते हैं लेकिन दुनिया के सबसे क़ीमती कॉस्मेटिक के साथ भी सबसे बड़ी विडंबना ये हैकि उसे उतारकर या धोकर सोना ही पड़ता है ।
शायद, इसीलिए कहा जाता हैकि सिम्पलीसिटी कभी आउट ऑफ फैशन नही होती।
लिंक्डइन प्रोफेसनल्स की दुनिया मानी जाती है, लोग यहाँ अपने काम के बारे में चर्चा करते हुए पाए जाते हैं, लोग मकसदों के बीच अपने मकसद का प्रोफेशनल खोज रहे होते हैं ।मैंने लिंक्डइन को बदलते हुए देखा है, या यूँ कहें कि अपग्रेड होते हुए । हम सब यहाँ किसी न किसी मक़सद से होते हैं, किसी को बिजनेस, जॉब, फेम, ब्रांडिंग तो किसी को बस तारीफ़ चाहिए होती है, मक़सद होना कोई बुरी बात नही है, लेकिन हममे से बहुत लोग दुनिया को इसबात के लिए भी दिनभर कोसते पाए जाते हैंकि दुनिया मतलबी हो चुकी है लोग किसी के काम नही आते हैं, ख़ैर इसके बाद भी बेहतर लोग हर जगह हैं और रहेंगे, मक़सद बनेंगे और पूरे होते भी रहेंगे ।
ख़ैर ये भी देखने में लगता हैकि हम अपने आपको कॉमन नहीं समझना चाहते और जितना अन-कॉमन समझते जा रहे हैं हमारा कॉमन सेंस भी उतना ही अन-कॉमन होता जा रहा है ।
मामला रिस्तों का चल रहा था, मैंने देखा है लिंक्डइन पर या किसी भी नेटवर्किंग साइट्स पर सब कुछ आसान है, पहले जन्मदिन, सालगिरह, ख़ास मौकों का रिमाइंडर आता था बस, अब पहले से लिखे लिखाये ग्रीटिंग्स मेसेजेज भी आते हैं, हमें बस एक क्लिक करना होता है और बधाई संदेश अगले के इनबॉक्स में होते हैं ।
पूरे दिन साथ मे एनीवर्सरी मनाने वाले कपल अगर शाम को शोशल मीडिया पर एक दूसरे को विश ना करें तो पूरी सेलिब्रेशन खतरे में पड़ जाती है कई बार ।
रिस्तों को याद रखना और निभाना इतना आसान पहले कभी नहीं रहा, और पूरी क़ायनात ये बात जानती हैकि जो आसान या आम हो जाये वो अपना वजूद ख़तरे में कर देता है।
रिस्ते कोई कॉन्ट्रेक्ट नहीं हैं जिसे महज़ सिग्नेचर की दरकार होती हो, ये तो जाने कितना कुछ हैं, एहसास करने से लेकर एहसास कराने तक के सफऱ में हमें रिस्तों की परिभाषा को फिर से इनके बेसिक्स में जाकर खोजनी पड़ेगी, क्योंकि आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस से हम ख़ास दिनों को याद करके ख़ास बधाई तो दे सकते हैं लेकिन खास भी बन पाएंगे इसपर एक बहुत बड़ा सवाल है, क्योंकि जिसका ख़ुद का नाम आर्टिफिशियल हो उसकी बुनियाद पर और क्या उम्मीद कर सकते हैं, कहते हैंकि एक चोर भी ईमानदार साथी चाहता है ।
और रिस्ते तो ईमानदारी, सहजता, और सरलता के बुनियाद पर ही जोड़ें जाए तो टिकाऊ हो सकते हैं।
शुक्रिया,
प्रवीण कुमार राजभर

Tuesday, 19 February 2019



कभी आपने शहीदों की शहादत के बाद उनके घर पर हो रही मिडिया कवरेज को गौर से देखा है ? क्या आपने नोटिस किया कि घर के कोने में खड़ी चारपाई कितनी पुरानी हो चुकी है, क्या आपने ये जानने की कोशिश की जो शख्स देश की खातिर मिट्टी में विलीन होने जा रहा है, उसके घर की दीवार ना जाने कबसे पेंट नहीं हुई है क्योंकि की कई जवानों के घर तो मिटटी के ही दिखते हैं, हाँ, उन दीवारों पर किये गए वादे जरुर दिख जाते हैं जो उस जवान ने किया था कि कुछ और साल में ये दीवारें मिटटी से ईंट की हो जाएँगी |
कभी ध्यान दिया है उन रोते बिलखते बच्चों पर जो उन सपनों को बताते हुए रो रहे होते हैं, जो उनके पापा ने अगली छुट्टी में आकर पूरा करने का वादा कर के चले गये थे, गौर से देखिएगा उन बच्चों के कपड़ों को, वो किसी शॉपिंग माल से ख़रीदे नहीं लगते हैं, ना ही किसी बड़ी मॉडर्न फैशन की दूकान से, ये उन्ही दुकानों के लगते हैं जहाँ पर इस बात पर उधार मिल जाता है कि 'बेटा छुट्टी पर आएगा तो पैसे चुका देंगे' ।
कभी कैमरे के उस नज़र पर भी गौर कीजियेगा जो वो देखना और दिखाना नहीं चाहता है, जरा उस विधवा के तरफ ध्यान दीजिये, जिसको इससे फर्क नहीं पड़ता कि उसे नेशनल टीवी पर दिखाया जा रहा है, उसका पल्लू अपने दौर के सबसे निचले स्थान पर गिरा हुआ है, वो रिपोर्टर, जो उससे अजीब से लेकिन बड़ा रटा राटाया सवाल पूछ रहा है, उसे ठीक से रोने भी नहीं दे रहा । 
उसे क्या फर्क पड़ता है “क्या आपको लगता है कि अब पाकिस्तान पर अटैक करके उसे बर्बाद कर देना चाहिए” सवाल पर उसके जवाब का कितना असर होगा, वो तो इस बात पर घबरा रही है कि, वो पडोसी जो उसकी मुट्ठी भर जमीन को सालों से हथियाने की कोशिश कर रहा है अब उससे उसे कौन बचाएगा, कौन बचाएगा उसे उन नज़रों से जो महज कुछ चंद दिनों बाद आंसुओं के सूखते ही उसे घूरना शुरू कर देंगी । उसके पति ने देश बचाने के लिए अपने जान की कुर्बानी दे दी और अब उसे अपने नन्ही सी बच्ची समेत खुद को बचाने के लिए अपनी जिंदगी की क़ुरबानी जाती हुई दिख रही है ।
कैमरा उन खामोश नज़रो के पीछे भी कुछ कहना चाह रहा है जो अभी कुछ वक्त पहले चमकते चहकते हुए अपने आपको एक सेना के जवान का पिता बता रहीं थी, इन आँखों को तो ठीक से रोना भी नहीं आता और ना ही अब इन में इतनी हिम्मत बची है कि बाकि रोती हुई आँखों को चुप भी करा सकें, लोग उसे बार बार ये कहकर और दुःखी कर रहे हैंकि अब आप ही हैं जो इस परिवार को हिम्मत दे सकता है, आपको रोते हुए लोग देखेंगे तो सभी कमजोर पड़ जाएंगे, लेकिन वो चाहता हैकि वो भी बिखर के रो ले, कोई तो कंधा हो जो बिना कुछ कहे सुने बस रोने दे उसे, वो रिपोर्टर यहाँ भी कुछ वही सवाल पूछ रहा है कि शायद कुछ तड़कता भड़कता जवाब आ जाए, और ये सनसनी खबरों के जमाने की पैदाइश वाला रिपोर्टर कुछ ऐसा दे सके जिसको उसके आका लोग एक्ससीलुसिव का नाम देकर दिन भर चला सकें, लेकिन बूढी आँखें तो कतई खामोश हैं, ठीक से हिंदी भी ना बोल पाने वाली जबान अपने दर्द को समेटने में असमर्थ हैं, लेकिन बोले तो बोले कैसे, कैमरे और माइक के सामने बोलने और भावुक होने का न ही कोई अनुभव है और ना ही आदत, ये काम तो नेताओं के बस का ही है ।
इसी बीच नेता जी की घोषणा भी हो जाती है कि पुरे 10 लाख शहीद के परिवार को मिलेंगे, ब्रेकिंग न्यूज़ में नेता जी के इस बयान को शहीद के परिवार से ज्यादा कवरेज मिलती है, और शहीद का बूढ़ा बाप इस बात से घबरा रहा है कि बुढ़ापे में इन 10 लाख को पाने के लिए कितने चक्कर लगाने पड़ेंगे ।
खैर, कैमरे बहुत कुछ बोलते हैं लेकिन आगे से जब भी किसी शहीद के घर की कवरेज हो तो उसके आगे भी वो देखने की कोशिश कीजियेगा जो रिपोर्टर छोड़ देता है या जिसको कवर करने की आजादी नहीं होती उसे ।
नेताओं का क्या है वो तो ट्विटर पर अच्छी संवेदनायें व्यक्त करने के लिए एक्सपर्ट्स रखें हैं, खैर जिनके घर, खानदान से कोई आर्मी में न हो ना शहीद हुआ हो वो इसका मतलब 15 अगस्त और 26 जनवरी को बोले गए भाषण में लिखी कुछ लाइनों के इतर नहीं समझ पाते हैं, छोड़िये कुछ लोग बस इसीलिए पैदा होते हैं कि हर चीजों को अपने मतलब के हिसाब से समझ सकें
जय हिंद।
प्रवीण कुमार राजभर

Friday, 8 February 2019


माँ कभी अकेले नही मरती!
मर जाता है आपका बचपन, मर जाती है आपके बचपन की वो सारी कहानियां जिसकी एक मात्र साक्षी बस माँ ही होती है, मर जातें है बचपन के वो सारे किस्से जो बस माँ के मुंह से ही अच्छे लगते हैं ।
मर जातीं है वो खुशियां, मुस्कुराहटें जो उस कहानी में माँ और बेटे, दोनो के चेहरे पर हर बार एक साथ आते थे, मर जाते हैं वो एहसास जब उनका हाथ सर से होते हुए चेहरे पर आता था, जिसके छुवन को शब्दों में समेटने कोशिश करना भी गुस्ताखी होगी ।
मर जाती है वो तोतली आवाज़ जिसे बच्चा बड़ा होने के बाद भूल जाता है, पर माँ हमेशा याद रखती थी ।
मर जाते हैं वो सारे स्वाद जो बस माँ के हाथों से निकलते थे, जो दुनिया के किसी भी दूसरे किचेन में नही मिल सकते ।
मर जाते वो सारे अनकहे दर्द, दास्तां जो छुपा लिए थे उन्होंने, महज़ इसीलिए की दुःखो को अपने आप तक समेटने का हुनर बस माँ में ही होता है।
मर जाती है वो मुहब्बत जो *लाडला* शब्द में मिलती है।
मर जाते हैं वो सारे गुहार, मन्नतें, दुवाएं जो हर त्यौहारों में, गली मोहल्ले और आस पास के मंदिरों में बैठे हर देवी देवताओं से माँ अपने बच्चों के लिए लगाया करती है ।
मर जाती है वो तकरार जो पिता जी से अक्सर हो जाती थी, जो बच्चे के हर नादानियों, गलतियों पर पर्दा डालने के लिए माँ लेकर आ जाती थी ।
मर जाती वो पसंद नापंसन्द की लंबी चौड़ी लिस्ट, जो बस माँ को पता होती है, जिसके बारे में खुद बच्चा भी अनजान रहता है ।
मर जाती है वो हर अदालत जिसमें हर केस की सुनवाई चाहे जितनी लंबी चले, चाहे जितनी खिलाफत वाली दलीलें दी जाए लेकिन माँ का अंतिम फैलसे में बच्चा जीत ही जाता है ।
मर जाती है वो सच्चाई और ईमानदारी की सबसे मजबूत दलील जो बचपन से लेकर अब तक "माँ कसम" बोलने से आती है ।
मर जाती हैं वो आँखें जिसके अपने हर सपने में बच्चे को केवल बड़ा, और बेहतर देखने की ही इजाज़त होती है ।
मर जाती है वो सुबह, जिसमें कई बार जागने के बाद भी बच्चा माँ के जगाने का इंतज़ार करता है, और माँ के बोलने पर ही जागता है ।
बंद हो जाते हैं वो सारे खाते, जिसमें कुछ बिना डिपॉजिट किये भी हमेशा लाड़, प्यार और आशीर्वाद जितना और जितनी बार विड्रॉल कर लो वो खत्म होने का नाम नही लेते ।

हाँ, माँ कभी अकेले नही मरती ।

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