Friday, 22 September 2017



व्हाट्सएप पर बातचीत का आलम ये है वो पिछले करीब 6 महीने से रोज सुबह मुझे मोटिवेट करके के लिए एक पोस्ट भेज देता है, शायद समाज को सुधारने और मोटिवेट रखने का सारा जिम्मा उसी के पास है ।
जाने कहां से इतना मोटवेशनल ज्ञान ले आता है वो, हर दिन सुबह लगभग एक ही तय वक्त पर मुझे एक मैसेज भेज देता है, मैं शुरुवात में मोटिवेट होता रहा लेकिन जब लगा कि कही ज्यादा ना मोटिवेट हो जाऊं तो मैंने पढ़ना बंद कर दिया ।
खैर ज्यादा मोटिवेट होना ही मात्र एक कारण नही था, इसके पीछे एक दूसरा बड़ा कारण भी है ।
व्हाट्सएप ने जहाँ कम्युनिकेशन को आसान बना दिया है वहीं इसके मायने भी बदल दिये है, लोगों को लगता है कि व्हाट्सएप पर एक ग्रुप या ब्रॉडकास्ट लिस्ट बना कर रोज सुबह गुड मॉर्निंग बोल देने से बातचीत बनी रहती है, और इस ग्रुप के सहारे मैं दुनिया की सारी मुश्किलें खत्म कर सकता हूँ ।
परिवार वाले "My Family" ग्रुप बनाकर रामु काका को छोडक़र उसमे सबको जोड़ चुके हैं और रामु काका कहते हैं ये आपस में तो इतनी भी बात नही करते जितनी बातें मुझे काम बताने के दौरान कर लेते हैं ।
आज हालात ये हैं जन्मदिन, दीवाली, दशहरा, ईद सब कुछ यहीं मनती है, व्हाट्सएप ग्रुप्स ने तो पैसे भी बचाने शुरू कर दिये हैं, कहा दीवाली पर पुडिंग सेट लेकर घर जाना पड़ता था अब दीवाली के दिन पुडिंग सेट वाली फोटो के साथ धमाकेदार दीवाली विश कर दो तो भी बात बन जाती है ।
बच्चे का जन्मदिन यहीं सेलिब्रेट होने लगा है अब, घर से निकलकर जाने की जहमत कौन उठाये, रात के बारह बजते ही विश कर दो काल करने की टेंशन भी खत्म ।
समस्या डेली मोटिवेशन या इस तरह के ग्रुप्स से नही है, समस्या इस बात से है कि इस तरह के ग्रुप्स में लोग जुड़े दिखने के बाद भी खतरनाक तरिके से बिखरे हुए होते हैं ।
जैसे कि मैंने पहले ही बताया था कि सुबह होते ही मेरे दोस्त का मैसेज आ जाता है मुझे, जाहिर सी बात है मैं उसके समाज कल्याण ब्रॉडकास्ट लिस्ट का हिस्सा हूँ, वो सुबह सुबह मेसेज भेज कर सामाजिक दायित्व से तृप्त हो जाता है, उसे लगता है कि अब उसके मेसेज के बाद समाज दुगुने स्पीड से काम पर लग गया होगा, समस्या तो ये है कि समाज का एक तबका सुबह सुबह इसी तरह के मेसेजेस को डिलीट करने में घंटो लगा देंते हैं ।
मैंने सुरुवात के कई दिन तक उसे गुड मॉर्निंग भाई लिखकर भेजता रहा, मुझे लगा कि उसके समाज सुधारक यज्ञ में कुछ आहुति तो मेरी तरफ से भी तो बनती है, लेकिन मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि हफ्ते हो गए उसने मेरे मेसेज को देखा भी नही, मुझे लगा सामाजिक आदमी है बिजी होगा , मैंने अगले एक हफ्ते तक फिर से गुड मॉर्निंग बोला, लेकिन उसने फिर से कोई मेसेज नही देखा ।
मुझे लग गया कि इसे इस बात से कोई फर्क नही पड़ता हैकि अगर समाज इसके मोटिवेशन मेसेज से मोटिवेट हो जाये और इससे आगे बात करने के लिए वही एक अर्जी वाला मेसेज भेज दो तो ।
अजीब है दोस्तों जाने ऐसी जिम्मेदारी का क्या करना जहां आप बस एक ब्रॉडकास्ट लिस्ट बनाकर सुबह गुड, महादेव का दर्शन, मोटवेशनल ज्ञान, देश की समस्याएं सब कुव्ह भेज देते हैं और बदले में आपके पास इतनी फुरसत नही होती है की आप उस मेसेज का रिप्लाई कर दें जिसमे आपके दोस्त ने लिखा होता है की भाई एक मदद चाहिए तुमसे ।
ध्यान दीजिए कहीं इसी तरह के समाज कल्याण का हिस्सा आप तो नहीं हैं।


माँ तो माँ होती है सर इसमें मेरी और आपकी माँ जैसा कहाँ कुछ होता है, ये शब्द उबर कैब के ड्राइवर राहिद के थे | आज की कहानी कुछ ऐसी है कि सुबह अचानक माताजी की तबियत बिगड़ जाने से उन्हें एम्स ले जाने का प्लान हुआ, हालांकि उन्हें दो दिन बाद ले जाना ही था तो सोचा आज ही दिखा लाते हैं, मैने डॉ साहब से बात की तो डॉ साहब ने कहा कि अगर 1 बजे तक आ जाओगे तो मुलाकात हो जाएगी, मैंने करीब 12 बजे कार बुक कर दी, उबर के हिसाब से कैब महज दो मिनट में आनी थी, बारिश भी हो रही, डर था की कहीं ट्रैफिक जाम ना मिल जाये, लेकिन ये पूरा विश्वास था कि अगर कैब अगले 5 मिनट में भी आ जाती है तो एम्स 1 बजे तक पहुच ही जाऊंगा. 5 मिनट हो गये थे कैब अभी तक नहीं आई, मैंने कॉल किया तो राशिद ने बताया कि सर बिलकुल आस पास में ही हूँ बस दो मिनट में पहुच रहा हूँ , मैंने उनसे अपनी समस्या बताते हुए रिक्वेस्ट की थोड़ी जल्दी आइये 1 बजे तक नहीं पहुचेंगे तो कोई फायदा नहीं होगा | खैर कैब कुल 15 मिनट की देरी से आई, बारिश शुरू हो गई थी, मैंने कैब में बैठते ही बोला भाई जितनी जल्दी हो सके पहुचा दो, हलाकि कैब लेट होने से मूड थोडा ख़राब तो था लेकिन मैंने इसे जाहिर नहीं होने दिया था | रास्ते में कई जगह गड्डे आये तो कार हिली और ब्रेक लगा मैंने तुरंत बोला भाई जल्दी तो है लेकिन समस्या ये है की आपको आराम आराम से ही चलाना पडेगा क्यूंकि माताजी का ऑपरेशन हुआ है तो झटकों से उन्हें दर्द होगा |
सर, मै बिलकुल ध्यान रखूँगा अब, लेकिन क्या करूँ दिमाग में ये भी है कि जल्दी पहुचाना है आपको तो थोड़ी एक्स्लेरटर पर पैर रखना ही पड़ेगा |
राहिद ने पूछना शुरू किया की क्या हुआ है, मैंने बहुत डिटेल में ना बताते हुए सारी बात समझा दी, बारिश बढती जा रही थी और उसी रफ़्तार से ट्रेफिक और मेरी बेचैनी भी |
“सर माँ तो माँ होती है न चाहे मेरी हो या आपकी” ये बात राहिद ने अचानक बोली थी |
मैंने अपने चेहरे पर थोड़ी सी मुस्कराहट रखने हुए हाँ में गर्दन हिला दी जैसे की वो ज्ञान दे दिया हो जिसकी जरुरत नहीं थी और जिसका यथार्थ से कोई खास सम्बन्ध भी नहीं था |
राहिद आगे भी इसी टॉपिक पर बात करना चाह रहा था लेकिन मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई तो शायद वो गाडी चलाने पर ही फोकस करता रहा |
सर पता है पिछले 2 दिन से लगातार गाड़ी चला रहा हूँ, घर भी नहीं गया |
इस बार फिर से उसने अपनी बात कह दी थी शायद इस उम्मीद में की इस टॉपिक पर मै कुछ बात जरुर करूंगा
मुझे लगा कि अगर अब आगे बात नहीं की तो शायद गलत होगा अब, मैंने पूछ ही लिया क्यूँ – बस सर टारगेट पूरा नहीं होता है तो कमाई नहीं होती है, ओला वाले अच्छे हैं सर उसमे गाडी थी तो कमाई अच्छी थी, वो शुरू हो चुका था अब इस बात की परवाह करते हुए कि मै सुन भी रहा हूँ |
1 बजकर 30 मिनट हो गये थे एमी अभी भी नहीं पहुच पाया था, डॉ साहब से बात हुई तो उन्होंने बताया की मै तो निकल चूका हूँ लेकिन एक डॉ को बोल दिया है उनसे मिल लेना | मै मन ही मन दिल्ली के ट्रेफिक को कोस रहा था कि पीछे से मम्मी की अचानक आवाज आती है, मंटू (मेरा घर का नाम) गाडी रुकवाना मुझे उलटी होने वाली है |
मम्मी जिस बीमारी से गुजर रही हैं उसमें उल्टियाँ बहुत आम रही है पिछले 8 महीने से, लेकिन दिल्ली के रिंगरोड, जैम पैक्ड सड़क और कार में उल्टी होना कतई आम बात नहीं थी उस वक्त |
मुझे समझ में नहीं आया की क्या करूँ और इसी बीच उन्होंने शीशा नीचे करके अपनी गर्दन बाहर निकालते हुए उल्टी करने की कोशिश करने लगी जिससे की कार गन्दी ना हो, मेरा ध्यान पीछे से आ रही गाड़ियों पर था कि गरदन बाहर निकली है तो कोई दूसरी मुसीबत ना जाए |
राशिद इसी बीच कार को किनारे लगाने के लिए कोशिश करने लगा, लेकिन रिंग रोड पर जहाँ लोग एम्बुलेंश को रास्ता देने के हिचकिचाते हैं वहां एक आम कार को किनारा मिलना कितना मुश्किल होता है ये दिल्ली वाले जानते हैं, खैर, इसी बीच मम्मी की उल्टियाँ बढती जा रही थी, मेरा दिमाग पीछे की गाड़ियों पर था, राशिद की कोशिश से कार थोड़ी किनारे हुई और उसने फिर कार रोक दी |
मुझे अजीब लगा की उसने कार क्यूँ रोक दी और ये देखने के लिए जैसे मैंने उसकी तरफ गर्दन घुमाई तो देखता हूँ को अपनी सीट से पीछे की तरफ होकर मम्मी के पीठ को थपथपा रहा था, बिलकुल वैसे ही जैसे जब हम लोग उल्टियाँ करते हैं तो माताजी लोग थपथपाती हैं |

उसने मेरी तरह देखते हुए कहा “सर अब गाड़ियाँ निकल जायेंगी, अभी माताजी की तबियत जरुरी है और ये बोलते हुए वो पानी की बोतल से पानी पिलाने लगा”
आंटीजी मुंह भी धो लीजिये, थोड़ी कुल्ला कर लीजिये, मुंह का टेस्ट नार्मल हो जायेगा |
मै निशब्द हुआ जा रहा था, और इस बात के लिए खुश भी था कि जो बात उसने थोड़ी देर पहले बोली थी वो उसको जीता भी है|
मुझे इस तरह के सपोर्ट की बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी, लेकिन अच्छा लगा की रिश्ते तो कहीं भी जुड़ जाते हैं, और निभा लिए जाते हैं, बस दिल में इंसानियत जिन्दा हो |
जाते जाते जब उसने हमें एम्स के सामने उतारा तो मै उसकी उस बात पर बड़ी देर तक मुस्कराता रहा जब उसने मुझसे कहा “सर 5 स्टार रेटिंग दे देना”
और मेरा जी चाहा की उसे गले लगाते हुए फ़िल्मी अंदाज में ये बात बोल ही दूँ कि “बस कर पगले रुलाएगा क्या?”
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Monday, 18 September 2017

इस दुनिया में हर उस चेहरे को लोग पसंद करते हैं जो हंसते और मुस्कराते रहते हैं ।आज की कहानी कुछ ऐसी है कि मैं जब भी मेट्रो से ट्रेवल करता हूँ, सिक्योरिटी चेक के वक्त वहाँ चेक कर रहे आर्मी के जवानों को जय हिंद जरूर बोलता हूँ और शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि जवान ने पलटकर मुस्कराते हुए जय हिंद ना बोला हो ।
सुबह सुबह कंधे पर लैपटॉप बैग और लैपटॉप में जाने कितने आधे अधूरी प्रोजेक्ट फाइलों को सेव करते हुए एक अरसा बीत गया लेकिन सुबह की ये मुस्कराहट और जयहिंद उस वक्त को कभी भी अधूरी नही छोड़ती है, ये करके मुझे जहां खुद को बहुत सुकून मिलता है वही दूसरे चेहरे पर आई खुशी इस चेहरे के सुकून हो दोगुना कर देती है ।
आज थोड़ा अलग हुआ, हम लोग आज इस भाग दौड़ में रहते हैं कि सुबह के नास्ते में आई चाय और पराठे के साथ भी कई बार ठीक से न्याय नही कर पाते हैं, दौड़ते भागते नास्ता करते हैं जैसे बस ये समय बचा लें तो सब कुछ समय पर हो जाये, कभी सोचियेगा कितनी कमाल की समझ है ना ये भी । खैर जाने कितने साल हो गए सुकून से सुबह ना भागते हए मेट्रो लेने को ।
आज मैं फिर से दो पराठे में से एक पराठे खाने के बाद आधी कप चाय पीकर ही भागते हुए मेट्रो लेने के लिए निकल पड़ा, समझ मे नही आता है कि इतना टाइम हो गया लेकिन ये 5 मिनट लेट होने वाले मामले का इक्वेशन ठीक से क्यों नही बैठता ।
सिक्योरिटी चेक के पास आकर मैंने अपने कानों से ईयर फोन निकाले और बैग को स्कैनर में फेकते हुए जैसे ही आगे बढ़ा सामने एक मुस्कराता चेहरा मेरा इंतज़ार कर रहा था ।
मैंने चेकिंग के लिए दोनों हाथ ऊपर उठाया, इस भाग दौड़ में शायद आज का जयहिंद कहीं भुल गया था मैं, या यूं कहें कि दिमाग फ़ोन पर था जिसपर एक दोस्त पहले से ही लाइन पर था
लेकिन इसी बीच जवान ने मुझे मुस्कराते हुए कहा "कैसे हैं आप"
मुझे एक बार को समझ मे ही नही आया कि हुआ क्या है, बिल्कुल उम्मीद नही थी कि इस तरह से भी होगा, मैं बिल्कुल तैयार नही था कि वो जवान मुझे पहचानता है, या ना भी पहचानता है तो ये पूछ लेगा की कैसा हूँ मैं, और खुद से उम्मीद तो ये भी नही थी कि मैं जयहिंद बोलना भूल जाऊंगा, मुझे खुद से शर्मिंदगी महसूस हुई, जैसे मैंने अपना वादा ही तोड़ दिया हो जो मैंने खुद से काफी दिनों से किया हो ।
मैंने तुरंत जवाब देते हुए "मैं ठीक हुँ, जय हिंद, आप कैसे हैं" एक ही सांस में बोल दिया ।
जवान की भाषा से लगा कि वो साउथ का है, उधर से भी उसने कहा "मैं भी ठीक हूँ" और ये बोलते हुए उसके चेहरे पर करोड़ो की मुस्कराहट थी और मैं इतना खुश था कि जैसे ये करोड़ों की मुस्कराहट मेरे सेविंग एकाउंट में क्रेडिट हो गए हों ।
इस महज 30 सेकंड की घटना ने जाने कितनी बाते समझा दी मुझे ।
मुझे उम्मीद नही थी कि ये जयहिंद बोलना मेरी पहचान बन गया है उस जवान के नज़रों में ।
मुझे उम्मीद नही थी कि जवान उम्मीद कर रहा होगा कि मैंने आज जय हिंद क्यों नही बोला, मुझे उम्मीद नही थी कि महज 30 सेकंड वाले सेक्युरिटी चेक करने वाले जवान से मेरा एक रिश्ता भी जुड़ चुका है । उम्मीद नही थी कि अगर मैं मिस कर दूं तो उस जयहिंद वाले रिस्ते के हवाले से मुझसे पलट कर ये पूछा जा सकता है कि "आप कैसे हैं" ।
कुल मिलाकर मामला ये समझ में आया कि आप दिन भर सोशल मिडीया पर भले ही हजारों स्माइलीज भेज देते हों, लाइक करते हों , नए दोस्त बनाते हों। लेकिन रियल लाइफ में इस तरह की दोस्तियां तो जैसे दिन ही बना देती हैं, यहां न ब्लॉक होने का डर है, ना किसी के कमेंट की उम्मीद ।

लेकिन बहुत ही प्यारा एहसास है ये, दोस्तों रिस्ते बनाने के फंडे आज भी वही हैं जो सोशल मीडिया के आने से पहले थे । जुड़ते रहिये, याद रखिये वो हर इंसान आपसे उम्मीद रखता है जिससे आप इंटरेक्शन करते हैं, मुस्कराहट की उम्मीद, पूछे जाने की उम्मीद, उसे याद रखने की उम्मीद ।
तो मुस्कराते रहिये न, यही तो जिंदगी है जाने कब कौन आपके सेविंग्स खाते में करोड़ों स्माइल जमा कर दे, या फिर क्या आपने ऐसा किया कि ये बात सच हो जाए ।

Friday, 8 September 2017

मै जहाँ रहता हूँ वहां जब जब स्कूल बस या कैब रूकती है तो देखता हूँ, कि एक भी बस या कैब सरकारी नियमों का पालन नहीं कर रहे, कोई भी कैब पिली पट्टी वाली नहीं होती है, बच्चे इस तरह से ठुसे हुए होते हैं जैसे की सब्जी मंडी में आलू को बोरियां ले जा रहे हों, मम्मियां बड़े प्यार से हाथ में बैग लेकर कैब तक आतीं हैं, बच्चे को एक प्यारी से चुम्मी देती हैं, और फिर बाय करते हुए उस कैब में बिठा देती हैं जिस कैब को उसके मालिक ने इसलिए बेच दिया था कि अब ये लोड नहीं ले पाती है, उसकी मेंटेनेंस का खर्चा उसकी कमाई से ज्यादा आता है, तो उसको स्कूल वालों ने खरीद क्र कैब बना दिया, जिस गाडी का अपना भविष्य ख़राब होने पर किसी और को टिका दिया गया हो अब वो देश के भविष्य को ढोने का काम करती है |
मम्मियां सड़क से तब तक नहीं हटती जब तक वो कैब आखों से ओझल हो जाये, लेकिन उस इन्सान के हवाले कर देती हैं जिसे कभी सीट बेल्ट बांधते नहीं देखा, उस कैब में बैठा देती हैं जिसकी बॉडी जर्जर हो गई, दुखद है ये की जब अम्बेसडर खुद बनना बंद हो गई, जिसे फिल्मों में गुंडे अपहरण करने के लिए इस्तेमाल करते थे आज वो उसमें आपका बच्चा स्कूल जाता है |
सच में रोज अपहरण होता है आपके बच्चे का, और आप खुद सौप के आते हैं इन डकैतों को, और फिरोती के नाम पर पहले ही पैसे चुके होते है | ये वो डकैत हैं जो पढाई के नाम पर तो आपसे मनमाने तरीके से पैसे वसूल लेते हैं लेकिन व्यस्था के नाम पर सरकारी नियमों तक की अनदेखी करते हैं |
आप खुद ही जिम्मेदार हैं इस सब बातों के लिए, मैंने कई बार कुछ पेरेंट्स को बोला कि आप पूछते क्यूँ नही ये कैब इतनी पुरानी क्यूँ है, पिली पट्टी क्यूँ नहीं है इसपर, लेकिन पेरेंट्स को फर्क नहीं पड़ा |
ध्यान रखिये महोदय मिडिया, सरकार, पुलिस तभी जागती है जब ऐसी ही किसी कैब में बेचारे बच्चे अपनी कुर्बानी दे जाते हैं और वो भी महज चंद दिनों के लिए इसके बाद तो आप को ही सजग रहना पड़ेगा |
बच्चे आपके हैं, खून पसीने की कमाई आपकी लग रही है, तो इतना तो सजग रहीये न की सवाल कर सकें |
मुहल्लें में सब्जी वाले से सब्जी खरीदते हुए तो इतनी मोलभाव करते हैं, की मानों एक टमाटर ख़राब निकल गया तो देश की अर्थव्यवस्था ख़राब हो जाएगी, जाते जाते फ्री वाली मिर्च लेना नहीं भूलते तो यहाँ भी सवाल कर लीजिये |
आपको ही करना पड़ेगा, बच्चा आपका है, वर्ना तो आप जानते ही हैं कि सरकारी सिस्टम में आक्सीजन तो कभी भी ख़तम हो जाता है |

Sunday, 3 September 2017



सुबह के 9 बजे रहे थे, सामने लैपटॉप खुला हुआ था, बड़े सारे टैब्स खुले थे लेकिन जो सामने था वो था फेसबुक | ये कहना गलत नहीं होगा की आजकल जितना लगाव इस फेस-बुक से है अगर उतना ही लगाव सेलेबस की  वाली बुक्स से हो जाता तो जाता था बात शायद कुछ और ही रहती |
मै बड़ी देर से फेसबुक पर जाने क्या देख रहा था, और ये ऐसा नहीं था की ये “जाने क्या वाला ख्याल पहली बार आया हो”, कई बार पहले भी घंटों फेसबुक पर रहने के बाद जब खुद से सवाल पूछा तो यही उत्तर मिला, कि जाने क्या कर रहा था इतने वक्त से |
लेकिन आज जैसा फील हुआ वो पहले कभी नहीं था, आज वाला पहले वालों से थोड़ा अलग था | फेसबुक ने बहुत बड़ा परिवार दिया है मुझे, बहुत से प्यारे मित्र इस आभासी दुनिया से निकलकर आज असल जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन ये दुनिया बहुत मायावी है, आप शुरुवात महज एक नोटिफिकेशन से करते हैं और फिर उसकेबाद जाने कहा कहा घूमते हुए पता भी नहीं चलता की फेसबुक पर पिछले आधे घंटे से उन लोगों के पोस्ट पढ़कर “दुनिया बहुत बुरी हो चुकी है लोगों में प्यार कम ज़हर ज्यादा है” टाइप कमेंट कर रहे हैं जिन्हें आप ठीक से जानते भी नहीं हैं और उस बन्दे ने भी अपनी डीपी में एनाकोंडा की फोटो लगा रखी है | एक वक्त था जब बिना बीडी सिगरेट के सुबह सुबह हलके ना हो पाने वालों की तादात थी और लेकिन आजकल बिना हाथ में फोन लिए टॉयलेट में न उतरने वालों की ज्यादा है |
हालाकिं मुद्दा यहाँ ये नहीं हैं, हम सभी जानते हैं कि सोशल मिडिया एक बहुत बड़ा साधन है तो समस्या भी है, समय कब कैसे निकल जाता है पता नहीं चलता, और समय सीमित हैं बाकी चीजों में तो इन्सान जुगाड़ सिस्टम से ऊपर नीचे करवा सकता है |
मै कल सुबह अपने लैपटॉप पर फेसबुक चेक कर रहा था, अचानक मेरा हाथ फोन पर जाता है जो पास में ही चार्ज में लगा था और मै फ़ोन उठा लेता हूँ, गौर करने वाली बात ये है की कोई काल नहीं आई थी, कोई मेल की नोटिफिकेशन नहीं आई थी, कोई टेक्स्ट मेसेज नहीं आया था, बस हाथ चला गया और फोन उठ गया, और ये सब कुछ जैसे अपने आप हो रहा हो, अनजाने में, बिना किसी कमांड के |
 फ़ोन उठाते ही फिंगर प्रिंट्स से मैंने अपना फ़ोन ओन किया, पहला क्लीक उस फोल्डर था जहाँ सोशल मिडिया के सारे एप्स थे, दुसरा क्लीक फेसबुक के आइकॉन पर था और तीसरे पल मै अपने मोबाइल पर भी फेसबुक खोल चूका था |
अचानक मेरा दिमाग कौंधा जैसे कि ये मै क्या कर रहा हूँ, सामने लैपटॉप पर फेसबुक और मोबाइल फोन में भी, मेरी नज़र महज कुछ सेकंड्स में ही कई बार फोन और लैपटॉप पर गई और जाने कितने सवाल कर दिए, और पहला सवाल था “प्रवीण अब ये कुछ ज्यादा नहीं हो गया क्या ? और जवाब भी तुरंत आया हाँ ज्यादा हो गया है |

फिर मैंने अपने आपको टटोलना शुरू किया तो पाया की मै तो लगभग हर 10-15 मिनट के अन्तराल में फेसबुक के नोटिफिकेशन देख रहा होता हूँ, भारत पाकिस्तान के मुद्दे से लेकर बीफ बैन और गौ माता की बात कर रहा होता हूँ या देख रहा होता हूँ, बिना पढ़े जाने कितने आर्टिकल्स लाइक्स कर रहा होता हूँ क्यूंकि सालों पहले उनके कुछ आर्टिकल पढ़ लिए थे तो अब लगता है इन्होने लिखा है तो अच्छा ही होगा, जैसे मेरे महज एक लाइक से उनके इस महीने का खर्चा चलता हो |

लोगों के टेढ़े मुह वाले सेल्फी पर अपने अंगूठे से मुहर लगा रहा होता हूँ और ये सब कुछ पुरे दिन होता है, सवाल था कि क्या अगर ये सब केवल मै सुबह शाम करूँ तो मार्क जुकरबर्ग मुझसे नाराज हो जाएगा, या मेरे दोस्त रिश्तेदार मुझे “अब तो शादी कर ले ” वाले आइडिया देना बंद कर देंगे, या वो टेढ़े मुह वाली लड़की कल से अपना मुह सीधा करके फोटो डालेगी तो उत्तर था “नहीं” |
शायद जवाब ये था की तुम्हारे दिमाग में ये इस तरफ से घुस चूका है की फोन उठाते ही पहले 3 क्लिक्स में तुम फेसबुक पर पहुच चुके होते हो |
मुझे अपने समय की फिकर होने लगी, लगने लगा की मै कितना समय बस इन्हीं नोटिफिकेशन में लगा देता हूँ और मैंने उसी वक्त अपने फोन से अपना फेसबुक का मोबाइल एप अनइंस्टाल कर दिया, और वादा किया की अब फेसबुक बस लैपटॉप से ही जारी रखूँगा |
एप डिलीट किये हुए 48 घंटे हो चुके हैं , सेहत में कोई गिरावट नहीं है, लाइक्स वैसे ही हैं, दोस्त पहले से ज्यादा कनेक्टेड हैं और समय ज्यादा है |
दोस्तों मै यहाँ अपनी फिलासफी नहीं दे रहा लेकिन शायद “अति सर्वर्त्र वर्जयेत” टाइप कुछ समझ में आ गया था और मुझे अपने आपको टेस्ट करने के लिए ये कदम उठाना ही था की कहीं मै एडिक्टेड तो नहीं हो गया |

अच्छा लग रहा है, शायद मै सोशल मिडिया में सोशल होने के नाम पर अब ज्यादा अनसोशल नहीं हूँ क्यूंकि कई बार सामने बचपन का दोस्त मिलने के लिए आया होता है और मै उस एनाकोंडा वाले दोस्त के “99 टाइप करो और जादू देखो” वाले पोस्ट पर कमेन्ट करके जादू की उम्मीद कर रहा होता था | 

Saturday, 2 September 2017


उन दिनों में लुधियाना में था, हर दिन की तरह शाम को ऑफिस से निकला और ऑटो स्टैंड पर ऑटो का इंतज़ार करने लगा | शाम को ऑफिस छूटने के वक्त डायरेक्ट ऑटो मिलना थोडा मुश्किल ही होता था | खैर थोड़ी देर के मशक्कत के बाद एक ऑटो मिला, कुछ और लोग भी साथ में बैठे थे | ट्रेनिंग प्रोफेशन में होने के वजह से अक्सर शाम को फोन में कई मिस्स्ड काल्स (जो ट्रेनिंग के दौरान पिक नहीं हो पाती थी) होती थी जो मै ऑटो में बैठकर ही निपटाने की कोशिश करता था | उस दिन भी यही सिलसिला चल रहा था, लगातार एक के बाद दूसरी काल्स करता जा रहा था ये सोचते हुए कि कहीं कोई जरुरी काल न हो जो मैंने मिस कर दिया हो | इस उहापोह में ना जाने मैंने कब आधा रास्ता तय कर गया पता ही नहीं चला |

तब तक साथ में बैठी सवारियां भी उतर चुकी थी | मै अकेला ही रह गया था, अपनी काल्स में मशगूल |
बाबूजी आप टिफिन कहाँ से मगाते हैं रोड पर गाड़ियों के शोर के बीच बहुत ही साफ सुनाई दिये ये शब्द किसी और के नहीं बल्कि उस ऑटो चालक के थे |

उसने फिर से पूछा सर आप अपना टिफिन कहाँ से मगातें हैं, लंच और डिनर रोज बाहर से तो करते नहीं होंगे वो अपने सर के ऊपर लगे रियर शीशे में मेरी तरफ देखते हुए ये सवाल दूसरी बार पूछ रहा था, उसके चेहरे पर आई हलकी सी मुस्कराहट के साथ वो बहुत सहज दिख रहा था |

मुझे थोडा सा वक्त लगा था अपने रोज फ़ोन करने वाली आदत से निकलने में | मैंने उसी शीशे में देखा और पूछा
लेकिन तुम्हे ये कैसे पता कि  मै टिफिन का खाना खाता हूँ मैंने उसको जवाब देने से पहले खुद उससे जवाब लेने की कोशिश की |
बहुत सिंपल है सर, इतनी देर से आप प्योर हिंदी में बात कर रहे हैं, बीच बीच में इंग्लिश भी बोल रहे हैं, पिछले बीस मिनट में आपने एक बार भी पंजाबी शब्द नहीं बोला, अब कोई लुधियाना का होता तो कम से कम कुछ पंजाबी तो जरुर बोलता न | पर ये हो सकता है कि आप खाना खुद बनाते होंगे लेकिन मैंने इसपर चांस ही नहीं लिया और सीधे मुद्दे पर आ गया, ज्यादा से ज्यादा आप मना ही करेंगे |

मै एक सेल्स ट्रेनर होने के नाते रोज यही पढाता हूँ की बेचते कैसे हैं, और मेरे साथ ही एक नया तजुर्बा जुड़ रहा था | मन ही मन मैंने उसके स्किल्स की तारीफ़ की |
लेकिन भईया तुम तो ऑटो चलाते हो, फिर ये टिफिन का बिजिनेस कौन करता है अगला सवाल फिर से उसके मतलब से नहीं बल्कि मेरे कौतुहलवश  आया |

सर मै ही करता हूँ,सुबह सुबह खाना बना लेता हूँ और उसके बाद दोपहर में ऑटो से ही सर्विस दे देता हूँ, कुछ ज्यादा कमाने के लिए कुछ भाग दौड़ तो करनी पड़ती है ना साहब, इतना ही नहीं मैंने अपना एक सैलून भी डाल रखा है,सन्डे के दिन टिफिन और सवारी दोनों में ही मंदी होती है तो सैलून पर बैठ जाता हूँ, बाल काटना भी आता है मुझे, कभी आइयेगा मेरे सैलून में टिफिन वाले कस्टमर्स को स्पेशल डिस्काउंट देता हूँ मै |
वो एक ही साथ टिफिन और सैलून दोनों बड़ी बारीकी से प्रमोट कर गया था मुझे |

अब हर शाम को ऑफिस के बाद आने वाली मेरे चेहरे की थकान जैसे मिटने लगी थी, समझ में आ रहा था की थकान ऑफिस ख़तम होने से नहीं बल्कि मानसिक थकावट से होती है |
सर बोलो तो कल मै आपको लंच का टिफिन देते जाऊं, आपका ऑफिस वही पास में ही होगा ना जहाँ से आप बैठे हैं?
ये उसके सेल्समैनशिप का दुसरा मास्टर स्ट्रोक था |
और अगर आपको पसंद आ गया तो शाम का टिफिन भी, उसने अपनी बात ख़तम करते हुए शीशे में फिर से बड़ी सहजता से देखा मुझे | नहीं भाई मैंने आलरेडी टिफिन लगवा रखा है, और काफी दिनों से डिनर वहीँ करता हूँ | मैंने उसकी बात काटते हुए मामला ही ख़तम कर दिया |

सर फिर आप रात का टिफिन वहीँ खाइए ना, कम से कम मुझसे दोपहर का खाना शुरू करवा लीजिये | कल मै आपको टिफिन दे जाता हूँ |
बस महज पांच मिनट और थे मुझे घर पहुचने मेंऔर मै ऑटो में ही एक ऑटो ड्राइवर कम सेल्स मैंन से सेल्स के गुर सीख रहा था |
चलो ठीक है, कल का टिफिन तुम देते जाना  फिर, देखते है एक बार खाकर फिर सोचेंगे की आगे क्या करना है |
उसके चेहरे पर जीत की ख़ुशी साफ़ दिख रही थी, ठीक है साहब कल दोपहर में मिलते हैं, खैर आजतक जिसने भी मेरा टिफिन खाया है मेरा रेगुलर कस्टमर बन जाता है, भरोसा है कल के बाद आप भी मेरे रेगुलर कस्टमर में से एक होंगे |
उसका आत्मविश्वास बता रहा था कि उसके खाने का टेस्ट सच में अच्छा होगा |
मै मुस्कराते हुए अपने घर में घुसते जैसे ही बेड पर गिरा और थकान का एहसास हुआ, उसके मुस्कराते हुए चेहरे ने मुझे एक बात याद दिला दी |


साहब सेल्समैन कभी थकता नहीं है |

Thursday, 17 August 2017


आज मैंने जब उसे बाकी दुनिया से बेखबर अपनी आजादी का जश्न मनाते देखा था तो ठिठक गया एक पल को, मन में हुआ कि जाकर शरीक हो जाऊं मैं भी, लेकिन साथ वालों के साथ ने मुझे आगे जाने से मजबूर कर दिया और मैं अपने धुन में व्यस्त रहा ।
लेकिन बेहतर बात ये हुई कि मैं फिर से लौटा उसी रास्ते से और इस बार रुक ही गया, मेरे साथ साथ मेरे दोस्त की 3 साल की बच्ची थी जो मुझसे पहले रुकी और उस तरफ देखने लगी, शायद वो द्वंद के हाथों मजबूर नही थी।
खैर उसके रुकते ही मुझे भी हिम्मत हुई और मैं उसे लेकर उस तरफ बढ़ गया जिधर वो लड़की उस दीवाल को रंग रही थी, वो ऊबड़ खाबड़ दीवाल जो बीच बीच में सीमेंट के गिर जाने से चितकबरी और भद्दी हो गई थी ।
मुझे और उस बच्ची को अपने तरफ आते देखकर वो हमारे तरफ पलटी और बच्ची से प्यार पूछा, क्या आप भी रंगोगे दीवाल ?
बच्ची शरमा रही थी, शायद वो तैयार नही थी अचानक इस ऑफर के लिए । वो पेंटर पीछे पलटी और अपने पास रखे सामान से एक पतला सा ब्रश निकाल के बड़े प्यार से उस बच्ची को देते हुए बोला, आप भी दीवाल रंगों न, चलो साथ साथ रंगते हैं । बच्ची ने थोड़ी ना नुकुर के बाद शरमाते हुए ब्रश पकड़ लिया । खैर इन सारे एपिसोड के बीच मेरे मन में कई सवालों ने जन्म ले लिया था ।
कि आज 15 अगस्त को जब पूरा भारत आजादी आजादी चिल्ला रहा है, मना रहा है, कसमें ले रहा, तिरंगे के आगे सर झुका रहा है, फेसबुक पर पोस्ट लिखे जा रहा है, और इन सबसे इतर इस बात की खुशियां मना रहा है कि कितना अच्छा है इस साल का 15 अगस्त जो वीकेंड के साथ आया है और मंडे के छुट्टी के साथ कुल चार छुट्टियां मिल गईं । वही ये लड़की इन सबसे इतर कनॉट प्लेस के चकाचौंध जिंदगी के बीच एक पुरानी और भद्दी हो चली दीवार को अपने कलर से रंगीन करने की कोशिश रही है, उसे इस बात से फर्क नही पड़ रहा था कि आते जाते लोग उसे घूरते हुए पता नही क्या क्या कयास लगाए जा रहे हैं, वो इस बात से अनजान थी कि उसके उम्र के लोग कनॉट प्लेस में ज्यादातर राजीव चौक के सेंट्रल पार्क से लेकर मैकडी, बर्गर किंग, कैफे कॉफी डे में एक हाथ में कॉफी मग लिए या कोल्ड्रिंक की बॉटल के साथ मिलते हैं । वो इस बात से खुश थी कि ये दीवाल जो अभी तक चलते फिरते लोगों के लिए महज पान और गुटका खाकर थूकने के काम आती थी वो उस दीवाल रंगकर एक प्यारी सी जिंदगी देने की कोशिश कर रही थी, चाहे वो उसमें जितनी भी सफल होती ।
उसकी देशभक्ति किसी राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत की मोहताज नही थी वो बस अपने हिस्से की कवायद में जुड़ी थी जिससे देश सुंदर हो सके ।
कोमल नाम बताया उसने अपना।
कोमल पेशे से एक इंजीनियर हैं, पैशन से एक आर्टिस्ट हैं और इस तरह के नेक काम जाने कबसे करती आ रहीं हैं।कोमल वीक डेज में हमारे और आपकी तरह नौकरी करती हैं और वीकेंड में लावारिश हो चली दीवारों को रंगकर जिंदगी देने की कोशिश करती हैं ।
कितना अजीब है ना आजादी और देशभक्ति के नाम पर हम सोशल मीडिया में पूरे दिन वैचारिक उल्टियां करते रहते हैं, दूसरों को ज्ञान देते रहते हैं, राष्ट्र निर्माण के ठेकेदार बनकर ठेका किसी और को देते रहते हैं वही कोमल जैसी लोग चुपचाप, खामोशी से राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे रही हैं ।
शायद आज इससे बेहतर देशभक्ति नही देख पाया था।

Sunday, 30 July 2017



पिछले हफ्ते एक दोस्त के फेसबुक वाल पर देखा उसने अपनी टूटी हुई टांग की फोटो डालकर अपडेट किया था, मेट विथ एन एक्सीडेंट, महज कुछ ही घंटों में उसके ऊपर 200 से ज्यादा कमेंट्स और 400 लाइक्स आ गए थे. लिखने वालों ने गेट वेल सून की लाइन लगा दी थी, फूल भी भेजे थे स्माइली वाले, कुछ लोगों ने तो थोडा ज्यादा टाइप करने की जहमत भी उठा ली थी, भाई कैसे हुआ और कब हुआ , उम्मीद करता हूँ सब ठीक होगा, भगवान् से प्रार्थना है सब ठीक हो जायेगा | 
अच्छा लगा देखकर कि देश विदेश के हर कोने से शुभचिंतकों की लाइन लगी थी. हम खामख्वाह ही दोष देते फिरते हैं कि लोगों में मानवीय मूल्यों के प्रति गिरावट हो रही है, सोशल मिडिया के इस दौर में मुझ तो ये कतई नहीं लगता है कि ऐसा कुछ हो भी रहा है , बल्कि इसमें तो बढ़ोतरी हुई है, हाँ किसी बात में गिरावट होनी चाहिए तो मानवीय उम्मीदों में होनी चाहिए जो आज भी उसी उम्मीद में जी रहा है कि लोग आकर उससे मिलेगें, उसके सिरहाने बैठकर कंधे पर हाथ रखकर बोलेंगे कुछ नहीं हुआ तुम्हे, सब ठीक हो जायेगा, हम है न | 

खैर, मेरा अभिप्राय यहाँ फेसबुकी प्यार पर ऊँगली उठाना नहीं है, क्यूंकि देश के दुसरे छोर पर बैठा एक इन्सान गेट वेल सून ही लिख सकता है, जो उसने लिख दिया, सवाल तो इस बात का है ये बात हमें तब पता चली जब खुद उस बन्दे ने अपने एक्सीडेंट की बात को चार दिन बाद फेसबुक पर अपडेट किया जब उसकी उंगलियाँ इस लायक हो चुकी थी की एक सेल्फी लेकर कुछ टाइप कर सके. इसके बाद उन लोगों को भी इसका तभी पता चला जो महज कुछ कदम पर ही रहते हैं, उन दोस्तों को भी तभी पता चला जो बचपन के सारे खेल, साजिश, मस्ती में एक रहे हैं, जो आज भी अपने आपको चड्ढी बड्डी यार बोलते हैं
मुझे याद है कि गाँव में जब फोन महज गिने चुने लोगों के पास होते थे, या होते ही नहीं थे तो भी सिस्टम इतना तेज था कि किसी के बीमार होते ही गाँव के हर कोने तक इसकी खबर लग जाती थी, रिश्तेदारों को पता नही कैसे पता चल जाता था, गाँव के खानदानी दुश्मन भी दरवाजे पर देखे जाते थे, शायद उनको भी समझ में आता था कि दुश्मनी धर्म निभाने के लिए दुश्मन का जिन्दा रहना जरुरी है इसलिए अभी तो मेरा दुश्मन दुवाओं का हक़दार है|

शोशल मिडिया आज सबसे बड़ा बाजार है, भारत पाकिस्तान के मैच में जब पूरी गलियां सुनसान होती हैं, रेडी वाले एक ग्राहक को तरसते हैं उस समय भी हम लोग सोशल में मिडिया में दौरे लगाते रहते हैं, लेकिन ये बात अब समझ में नहीं आती  है कि पडोसी को अपने पडोसी के बीमार होने, मरने की खबर की जिम्मेदारी शोशल मिडिया ने अचानक कब उठा ली

हम जहाँ सोशल मिडिया में इस बात की रेस लगा रहे हैं की ज्यादा से ज्यादा लोग हमारी फ्रेंड लिस्ट में हों, वहीँ आज वो लिस्ट कबकी ख़तम हो गई जो कभी बिना सोशल मिडिया के बिना बनी थी, शायद आज हम सोशल होते हुए भी ज्यादा अनशोशल हो चुके हैं | इस वर्चुअल दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि इसने हमें कुछ इस तरह मशीनी बना दिया है कि हमें पडोसी के घर से बदबू आने के बाद पता चलता है की ये कोई सड़े खाने की बदबू नहीं बल्कि उसी शख्स की है जिसके साथ सालों पहले कभी होली दिवाली खेली थी और आजकल कभी कभी सब्जियों की सन्डे मार्किट में किसी दुकान पर टकरा जाते थे, इसे त्रासदी नहीं 
तो और क्या कहेंगे जब इस तरह की ख़बरों को हम तक पहुचाने की जिम्मेदारी भी फेसबुक और व्हाट्सएप ने ले ली है| 

आजकल हर परिवार सुबह से शाम तक मिलता है, बातें करता है, तस्वीरें शेयर करता है, जन्मदिन से लेकर हर त्यौहार के शुभकामनाएं भेजता है लेकिन कहाँ, व्हाट्सएप के फेमिली ग्रुप में | कमाल की बात तो ये है कि कई बार रियल लाइफ में लोग इसलिए नाराज़ हो जाते हैं क्योंकि आभासी दुनिया में उनके करीबियों ने उनकी तस्वीरें लाइक नही की मतलब लोग करीब तो हैं लेकिन ये करीबी कितनी दिखावटी है हम सब बखूबी जानते हैं और जैसे तैसे स्माइली भेजकर अपना स्माइल वाला धर्म निभा रहे हैं | 

दिखावेपन का बुखार कुछ इस तरह का है की पत्नी को पति के साथ पुरे दिन रहने के बाद भी शादी की सालगिरह मुबारकबाद वाली फिलिग़ तब तक नही आती है जबतक उसका पति एक लम्बा पोस्ट फेसबुक पर करते हुए ये न लिख दे की “हैप्पी एन्नीवर्सरी बेबी”
खैर रिश्ते बनाने और चलाने के तौर तरीके आज भी वही है जो शोशल मिडिया से पहले होते थे, हम इन्सान को लाइक्स पसंद आते हैं लेकिन ये ज्यादा पसंद आता है की मेरे पास अगर फेसबुक अकाउंट नहीं है तो भी लोग मुझे पसंद करते रहें, मिलने आते रहें, गेट वेल सून बोलते रहें, मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोल दें कि सब ठीक हो जायेगा |
चलते चलते इस बात पर भी गौर कर लिया जाए की पॉकेट से स्मार्ट फोन और उसमें इन्टरनेट के गायब होते ही हम कितने अकेले हैं इसका एहसास बना रहे तो जिंदगी सच में सोशल बनी रहेगी |

Friday, 23 June 2017



40 रुपये में हॉस्पिटल का सबसे सस्ता और सबसे उपयोगी बिछौना है साहब, ले लो इसकी जरूरत जरूर पड़ेगी, आप एम्स में आये हो ।
हॉस्पिटल के बाहर एक प्लास्टिक बेचने वाले की सेल्स पिच थी ये,कही भी कभी भी बिछा कर बैठने वाली बेडशीट टाइप। ये सच में बड़ी काम की होती है । 
किसी बीमारी का दंश झेल रहे मरीज के साथ साथ पूरा परिवार बीमार हो जाता है, क्योंकि अमूमन एम्स में आने वाले लोग वही होते हैं जो या तो हर जगह से उम्मीद छोड़ चुके होते हैं या बीमारी ही ऐसी होती है जिसमें बचने की उम्मीद कम होती है। हाँ इसके इतर एक दो गाड़ियां रेड बत्तियों वाली या सरकारी टाइप भी दिख जातीं हैं, जिनकी बीमारी को भी ऐसा VIP ट्रीटमेंट मिलता हैकि ये बीमारियां भी अपने ऊपर रश्क करती होंगी ।
एम्स, भारत की सबसे बेहतरीन मेडिकल सुविधाओं वाला हॉस्पिटल है, ना जाने कितने गरीब परिवार यहां मिल रही फ्री दवाओं के बदले बस दुवाएं ही दे सकने के काबिल होते हैं ।
हॉस्पिटल की भी एक अलग दुनिया होती है न, और एम्स तो अपने आप मे एक अलग ग्रह है इस मामले में,
भीड़ इतनी की अगर आपको फर्श पर बैठने की जगह भी मिल जाये तो समझीये आप लकी हैं, फिनायल की खुशबू वाले फर्श, पुराने स्ट्रेचर के बेयरिंग से आ रही चु चू की आवाज़ के साथ उसपर पर लदी थकी हुई जिंदगियां, लाइनों में घंटों से लगे हुए थकान वाले चेहरे, महज एक मीटर में सिकुड़ कर सोया हुआ सफेट प्लास्टर में आधा लिपटा हुआ वो शख्श, लाइन में लगी दवाई की पर्ची एक हाथ लिए हुए और दूसरे हाथ मे किराये के पैसे दबोचे हुए वो बूढ़ी और कमजोर हड्डियां जो इस डर में हैकि कहीं अंदर से ये आवाज ना आ जाये कि अम्मा ये वाली दवाई तो खत्म हो गई है अब आपको बाहर से लानी पड़ेगी ।
दो टॉयलेट में एक टॉयलेट पर ताला लगने के बाद एक ही लाइन में खड़े हुए औरत और आदमी । वहीं चेहरे पर मुस्कान लिये ठीक होकर लौटता हुआ मरीज से तब्दील होकर जीता जागता इंसान।
हॉस्पिटल के बाहर 2 रुपये की चीज को 15 में बेचने वाले डकैत, और इन सबके बीच में उलझा हुआ वो हर इंसान जो बीमार ले साथ आया हुआ होता है, और जिसे डॉक्टर के कहे मुताबिक मरीज के सामने हमेशा मुस्कराते रहने की एक्टिंग करनी होती है ।
इनकी शक्लें बताती हैं कि ये कोई और नही इनमे से ज्यादातर किसान ही हैं जो सूइसाइड करने से बच गए तो अब बीमारी मार देगी इन्हें ।
और दूसरे तरफ मास्क से आधे ढके हुए चेहरे जो सासों को फिल्टर करके अपने फेफड़े की फिक्र करते दिख जाएंगे, अमूमन ये लोग हॉस्पिटल स्टाफ होते हैं ।
यहीं सफेद जैकेट पहने हुए, शांतिदूत टाइप डॉक्टर्स हमारी आखिरी उम्मीद होते हैं, हरे पर्दे में ढका हुआ इनका केबिन, आखों को सुकून तो देता है लेकिन धड़कने बढ़ी होती हैं कि ना जाने कौन सी न्यूज़ ब्रेक हो जाये, डॉ जब रिपोर्ट्स देखतें हैं तो मरीज की नज़र उनके माथे पर पड़ी हुई सिलवटों पर होती है, वो गिनता रहता है कि कितनी बढ़ रही हैं और कितनी कम, डॉ की आँखें जितनी छोटी होती जाती हैं उनमें मरीज को गहराई और दिखने लगती है । वैसे रिपोर्ट्स का भी कमाल का कनेक्शन होता है, इधर डॉ ने लिखा और उधर मरीज एक डिलीवरी बॉय के तरह भागना शुरू कर देता है , और तब तक नही थकता जब तक लैब से रिपोर्ट्स लेकर डॉ तक न पहुचा दे और जान ले उसके बारे में ।
एम्स में इलाज निःसंदेह बेहतर होता है, डॉ बहुत अच्छे होते हैं, ये मेरा अपना अनुभव है । लेकिन इस तरह के संस्थान और होने चाहिए देश में, जिससे कि भीड़ कम हो, लोगों को जरूरी इलाज समय पर मिल सके ।
खैर आखिर में, मुस्कराइए की जिंदगी यही है ।

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